(६०० )
दोहा
अतिरति मतिगति एककर, बहु विवेक युतचित्त ।
त्यो न होय क्रमभग त्यों, बरनो चित्रकवित्त ॥४॥
बडे प्रेम के साथ, मति ( बुद्धि ) की गति को एकत्र करते हुए,
अर्थात् जहाँ तक बुद्धि जा सके वहाँ तक, अपने चित्त को विवेक यत करके
चित्रालकार युक्त रचना करो, जिससे पहले लिखे हुए नियमो का ( जहाँ
तक हो सके ) क्रम भग न हो। [भाव यह है कि यद्यपि चित्रालकार मे,
दोषो पर ध्यान नहीं देने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु फिर भी जहाँ तक
हो सके दोषो से बचना ही चाहिए ]
-निरोष्ठ
दोहा
पढ़त न लगै अधर सों, अधर वरण त्यो मडि ।
और वर्ण बरणौ सबै, उप वर्ग को छडि ॥५॥
'निरोष्ठ' मे ऐसे अक्षरो को रखो कि उसे पढते समय और ओठ से
मोठ न छूने पावें। इस तरह की रचना में 'उ' र पर्वग (प, फ, ब, भ,
म) को छोड़ कर, सभी अक्षरो का प्रयोग करो।
उदाहरण
कवित्त
लोक लीक नीकी, लाज लीलत है नंदलाल,
. लोचन ललित लोल लीला के निकेत है।
सौ हन को सोच न सकोच लोका लोकनि को,
देत सुख, ताको सखी दूनो दुख देत है।
'केशौदास' कान्हर कनेर ही के कोरक से,
बाह्म रंग राते अंग, अंतस मे सेत है।
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३१८
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ शोधित नही है
