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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३२६

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(३०८)

चौदह अक्षर

दोहा

ढूका ढाकी दिनकरौ, टकाटकी अरु रैनि।
चामे केशव कौन सुख, घेरुकरैपिकबैनि॥२०॥

तुम दिन में तो लुक-छिपकर और रात में टकटकी लगाकर देखा करते हो हे कृष्ण! इसमें भला कौन सा सुख मिलता है। इसकी तो बहुत सी पिक बैनो स्त्रिया निन्दा ही करती हैं।

तेरह अक्षर

दोहा

कहो और को मैं सुन्यों, मन दीनो हरिहाथ।
वा दिनते बन में फिरै को जानै किहि साथ॥२८॥

मैंने दूसरो का कहना मान कर, अपना मन श्रीकृष्ण के हाथ में दे दिया। उसी दिन से वह मन, न जानें, किसके साथ, वन वन में घूमता फिरता है।

बारह अक्षर

दोहा

काहू बैरिन के कहे, जी जुरि गयो सनेहु।
तोरेते टूटै नहीं, कहा करो अलेहु॥२९॥

किसी बैरिन के कहने से, मेरे मन में स्नेह जुड़ गया। अब वह तोड़ने पर भी नहीं टूटता। लो अब मैं क्या करूँ।

ग्यारह अक्षर

दोहा

वे सब सोहैं कालकी, बिसरी गोकुल राज।
मुख देखो लै मुकुरकर, करी कलेवा लाज॥३०॥