पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३११)

बनमाली (श्रीकृष्ण) बन में (श्रीराधा) से मिले। उनके गले में कमलो की सुन्दर बनमाला सुन्दर लगती थी। राधा जी उनसे नेत्रो तथा मन से तो मिलीं, परन्तु बचनो से नहीं मिलीं अर्थात् कुछ बोली नहीं।

तीन अक्षर

दोहा

लगालगी लोपौगली, लगे लाग लै लाल।
गैल गोप गोपी लगे, पालागो गोपाल॥३८॥

'आज मैं इसकी गली अर्थात् लज्जा शीलता को लुप्तकर दूँगा' इस लाग (प्रतिज्ञा) को लेकर श्रीकृष्ण उसके पीछे-पीछे लगे। तब उसने कहा कि---'हे गोपाल! मैं पैरो पड़ती हूँ, मार्ग में बहुत गोप गोपी लगे हुए हैं।'

दुइ अक्षर

दोहा

हरि हीरा राही हरयो, हेरि रही ही हारि।
हरि हरि हौ हाहा ररौ, हरे हरे हरि रारि॥३९॥

श्रीकृष्ण ने मेरा मन मार्ग मे हरण कर लिया। उसी को खोजते- खोजते मैं हार गई। तब मैं बार बार उनसे (हृदय लौटाने के लिए) हा हा खाने लगी अर्थात् विनती करने लगी कि हे हरि! इस झगड़े को बचाओ (और मेरा हृदय लौटा दो।)

एकाक्षर

दोहा

नोनी नोनी नौनि नै, नोनै नोनै नैन।
नाना नन नाना नने, नाना नूने नैन॥४०॥