यहिबिधि कपित्त फल जानिये कर्ता अरु जा हित करै।
तजि तजि प्रबन्ध सब दोष गन, सदा शुभाशुभ फल धरै॥२६॥
'पृथ्वी' अत्यन्त सुख देती है और 'जल' सदा आनन्दकारी होता है। 'अग्नि' प्रतिदिन अग को जलाती है और 'सूर्य' सुख को सुखा डालता है अर्थात् दुखदायी होता है। 'केशवदास कहते है कि 'आकाश' निष्फल होता है तथा 'वायु' देश से उच्चाटन कर देता है। 'चन्द्र' अनेक मङ्गलो को देनेवाला और 'नाग' बुद्धि का बढ़ाने वाला है। इस तरह कविता के शुभाशुभ फलो को जानना चाहिए। ये फलाफल कविता करनेवाले तथा जिसके लिए कविता की जाय दोनो के लिए है अतः अपनी रचना में सभी दोषो को छोड़ते हुए शुभाशुभ फलो पर सदा विचार कर लेना चाहिए।
जो कहुँ आदि कवित्त के, अगन होइ बड भाग।
तात द्विगत पिचार वित, कीन्हो वासुकिनाग॥२७॥
हे बड़भाग! यदि कहीं कवित्त के आरम्भ मे 'अगण' आ ही पड़े तो उसके निवारण के लिए वासुकि नाग ने विचार कर द्विगण का नियम बनाया है।
कवित्त
मित्र से जु होइ मित्र, बाढै बहु रिद्धि-सिद्ध,
मित्र ते जुदास त्रास युद्ध में न जानिये।
मित्र ते उदास गन होत, गोत दुख देत,
मित्र ते जु शत्रु होइ मित्र बन्धु हीनिये॥
दास तें जु मित्र गन काज सिद्ध केशौदास,
दास ते जु दास बस जीव सब मानिये ।
दास ते उदास होत धन नास आस-पास,
दास ते जु शत्रु मित्र शत्रु सो बखानिये॥२८॥