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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३५१

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( ३३३ ) राम नर गति सुधः धारि वाम गुरु गति | कुध हद | चरण गुप्त दोहा राजत अगरस विरस अति, सरस सरस रस भेव । पग पग प्रति युति बढ़ति अति, वयनवमन मतिदेव ॥८॥ सुवरण वरण सु सुवरणनि रचित रुचिर रुचि लीन । तन गन प्रकट प्रवीन मति, नवग्ग राय प्रबीन ॥१॥ नवरग राय का अयरस (प्रेम) और विरस ( मान ) दोनो समय भे सुशोभित होता रहता है। वह सरस अर्थात् रसीली है और रस-भेद (काम क्रीडा) मे सरस (बढ़कर) है। उसकी (नाचते समय) पग पग पर धु ति बढती है उसको नवीन वय है और उसकी मति देवता मे लगी रहती है। उसका वरण अर्थात् रग सुवरण ( सोने ) जैसा है और उसकी रुचि (शोभा ) मे सुवरणरचित ( सोने से बने ) गहनो मे लीन हो जाती है। उसके वन तथा मन से प्रवीण मति प्रकट होती है।