( २७ )
उदाहरण
सवैया
पहिले सुखदै सबही को सखी, हरिही हितकै जुहरी मति मीठी।
दूजे लै जोवनमूरि अकूर, गयो अग अग लगाय अँगीठी ॥
अबधौं केहिकारण ऊधव ये, उठिधाये लै केशव झूठी बसीठी।
माथुर लोगनिके सँगकी यह बैठक तोहि अजौ न उबीठी ॥३॥
हे सखी। पहले तो हरि ( श्री कृष्ण ) ने सबको सुख दिया और
प्रेम करके सुबुद्धि हर लो । फिर अक र आकर उन जोवन मूरि ( श्री
कृष्ण) को ले गये और इस तरह मानो उन्होने अग अग मे अगोठी लगा
दी (जलन उत्पन्न कर दी दुख दे दिया)। 'केशवदास' ( सवो को ओर से)
कहते हैं कि अब यह पत्र झा सदेश लेकर क्यो आये हैं ? मथुरा के
लोगो के साथ का उठना-बैठना तुके अब भी अरुचिकर नहीं हुआ?
(इस सवैया के पहले चरण मे 'को' को दीर्घ लिखा गया है परन्तु
उसका उच्चारण ह्रस्व की तरह होता है । इसी तरह दूसरे चरण में 'जे'
और, 'ले' अक्षर ह्रस्व की तरह पढे जाते है । तीसरे चरण ने ये और
'ल' का उच्चारण भी ह्रस्व हो होता है।)
संयोगी के आदि युत, कबहुंक बरन बिचारु ।
केशवदास प्रकासबल, लघुकरि ताहि निहारु ॥३६।।
केशवदास जी कहते है कि सयुक्तअक्षर के आदि के अक्षर को भी
कभी कभी अपनी बुद्धि के बल से 'लघु' ही समझना चाहिए । अर्थात्
कभी-कभी सयुक्ताक्षर के पहले का अक्षर भी लघु माना जा सकता है)
उदाहरण
दोहा
अमल जुन्हाई चन्दमुखि, ठाढ़ी भई अन्हाय ।
सौतिनिके मुखकमल ज्यो, देखि गये कुम्हिलाय ॥३७॥
पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/३९
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