पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/४०

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( २८ )

चन्द्रमुखी जब स्नान करके खड़ी हुई तब उसको चन्द्रमुख की निर्मल चाँदनी को देखकर सपत्नियो के मुखकमल मुर्झा गये।


[ इस दोहे मे 'जुन्हाई' तथा 'अन्हाय' शब्दो के 'नु' तथा 'अ' अक्षर संयुक्ताक्षर के पहले होने के कारण दीर्घ माने जाने चाहिए परन्तु यहाँ वे 'लघु' ही हैं। ]


( २ ) हीनरस दोष

दोहा

बरनत केशवदास रस, जहाँ बिरस है जाय।
ता कवित्तको हीनरस, क्हत सकल कविराय॥३८॥


'केशवदास' कहते हैं कि जहाँ किसी रस का वर्णन करते-करते विरस हो जाय अर्थात् उसका पूर्ण परिपाक न हो तो उस कवित्त को सभी कविराज 'हीनरस' कहते हैं।

उदाहरण

सवैया

दै दधि दीन्हों उधार है केशव, दान कहा जब मोललै खैहै।
दीन्हे बिना तौ गईं जु गईं, न गईं न गईं घरही फिरि जैहैं॥
गो हित वैर कियो, कबहो हित, बैर किये बरू नीके ह्रै रैहैं।
वैरकै गोरस पेचहुगी अहो, बेचो न बेचो तो ढारि न दैहै॥३८॥

( केशवदास जी एक गोपी और श्री कृष्ण का उत्तर-प्रत्युत्तर वर्णन करते हुए लिखते है कि ) श्रीकृष्ण ने जब कहा कि 'दही दो'; तब गोपी ने उत्तर दिया कि मै तो उधार दे चुकी ( अर्थात् उधार न दूँगी, मोल लो )। तब श्री कृष्ण बोले कि हम दान लेने वाले कैसे, जो मोल लेकर खायें। और 'दान दिये बिना तो तुम जा चुकी।' गोपी ने उत्तर दिया कि---'बिना दान दिए मैं जाऊँ या न जाऊँ, कोई चिन्ता नहीं; यदि न गई तो घर ही को लौट जाऊँगी।' तब श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि 'तुमने मानो इसके लिए बैर किया।' वह बोंली मेरा तुम्हारा प्रेम ही कब था? मै वो तुमसे बैर करके ही सुखी