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पृष्ठ:कवि-प्रिया.djvu/९७

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सुन्दर वेश वाले सुखदायी चन्द्रमा परिवेष (प्रकाश युक्त घेरे) के बीच दिखलायी पडते हो, और जिस प्रकार किसी तिरछी दृष्टिवाली स्त्री के हाथो मे ककण पड़ा हो जिसकी द्युति प्रस्यक्षरूप से प्रकाशित हो रही हो 'केशवदास' कहते हे कि ठीक उसी प्रकार रसिक लाल, श्रीकृष्ण ) रास-मडल मे खडे हुए दिखलायी पडते है। उनके चारो ओर गोपियो की मडली सुशोभित हो रही है।

२६, २७ अगति सदागति वर्णन

अगति सिधु, गिरि, ताल, तरु, वापी, कूप, बखानि।
महानदी, नद, पथ, जग, पवन सदागति जानि॥६०॥

सिंधु, पहाड, ताल, पेड, वाणी ( बावली ) और कुआँ आदि को अगति अर्थात् अचल समझो तथा महानदी, नद, पथ, जग और पवन को सदागति ( सदैव चलनेवाले ) जानो।

उदाहरण

कवित्त

पथ न थकत मन मनोरथ रथन के,
'केशौदास' जगमग जैसे गाये गीत मै।
पवन विचार चक्र चक्रमन चित्त चढ़ि,
भूतल अकाश भ्रमै धाम जल शीत मै।
कोलौ राखों थिर बपु बापी, कूप, सर राम,
हरि बिन कीन्हे बहु बासर व्यतीत मैं।
ज्ञान गिरि कोरि तोरि लाज तरुजाय मिलौ,
आपही ते आपगा ज्यो आपनिधि प्रीत मै॥६१॥

'केशवदास' ( किसी स्त्री की ओर से उसकी सखी से कहते हैं कि ) मेरे मनोरथो के रथो का पथ कभी रुकता नहीं। अर्थात् मेरे मन मे अनेक मनोरथ उठा ही करते है और ससार का जैसा नियम है तथा गीताओ ( ग्रन्थो मे ) भी जैसा कहा गया है, मेरे विचार पवन पर