काव्यमीमांसा के अनुसार 'वाङमय' ('लिटरेचर') दो प्रकार का होता है-- (१) ‘शास्त्र’ तथा (२) 'काव्य' । बिना 'शास्त्र'-ज्ञान के ‘काव्य’ नहीं बन सकता । इसलिए पहले शास्त्रों ही का ज्ञान सम्पादन करना आवश्यक है ।
'शास्त्र' दो प्रकार का है--(१)‘पौरुषेय’ तथा(२)‘अपौरुषेय’ ।अपौरुषेय 'शास्त्र' केवल ‘श्रुति’ है । मन्त्र और ब्राह्मण-रूप में श्रुति पाई जाती है । जिन वाक्यों में कर्तव्य कर्म के अंग सूचित मात्र है उन्हें ‘मन्त्र’ कहते हैं । मन्त्रों की स्तुति निन्दा तथा उपयोग जिन ग्रन्थों में पाया जाता है उन्हें ‘ब्राह्मण’ कहते हैं । ऋक्, यजुः, साम--ये तीन वेद ‘त्रयी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं । चौथा वेद ‘अथर्व’ है । जिन मन्त्रों में अर्थ के अनुसार पाद व्यवस्थित हों उन्हें ‘ऋक्’-मन्त्र कहते हैं । वे ही ऋक्-मन्त्र जब गान-सहित होते हैं तो ‘साम’ कहलाते हैं । जिन मन्त्रों में न छन्द है न गान वे ‘यजुष्’ मन्त्र कहलाते हैं । इतिहासवेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, आयुर्वेद ये चारों ‘उपवेद’ । इनके अतिरिक्त एक ‘गेयवेद’ भी माना गया है जिसे द्रौहिणि ने ‘वेदोपवेदात्मक सार्ववर्णिक’ बतलाया है । अर्थात् चारों वेद तथा चारों उपवेदों का सारांश इसमें है और इसके पढ़ने-पढ़ाने में सभी जाति अधिकारी हैं ।
(१) शिक्षा, (२) कल्प, (३)व्याकरण, (४) निरुक्त, (५) छन्दोविचिति, (६) ज्योतिष, ये छः वेदांग हैं ।इनके अतिरिक्त ‘अलंकार’ नाम का सातवाँ अंग भी माना गया है--क्योंकि इससे बड़ा उपकार होता है । इन अंगों के ज्ञान के बिना वेद के अर्थ का समझना असंभव है ।