नहयेकस्मिन्नतिशयवतां सन्निपातो गुणानाम्
एकः सूते कनकमुपलः, तत्परीक्षाक्षमोऽन्यः ॥
अर्थात्——कोई आदमी केवल वाक्य-रचना ही में समर्थ होता है- कोई उसके सुनने ही में । ये दोनों तरह की बुद्धि हमारे मन में आश्चर्य उत्पन्न करती है । एक ही मनुष्य में अनेक विशिष्ट गुणों का सन्निपात नहीं होता । सोने को उत्पन्न करने वाला पत्थर और होता है और उसकी परीक्षा में समर्थ दूसरा ही ।
भावक चार प्रकार के होते हैं--(१) विवेकी--(२) अविवेकी (३) मत्सरी--(४) तत्त्वाभिनिवेशी । विवेकी भी दो प्रकार के होते हैं--स्वभाव से ही गुण-दोष जानने के सामर्थ्यवाले और विद्या सीखकर गुण-दोष जाननेवाले। मत्सरी भावक को सौंदर्य भासित होने पर भी नहीं भासित सा है क्योंकि वह उसे प्रकाश नहीं करता । ज्ञाता होकर मत्सर-रहित विरले ही होते हैं । जैसा इस श्लोक में कहा है--
कस्त्वं भोः--कविरस्मि--काप्यभिनवा सूक्तिः सखे पठयताम्--
त्यक्ता काव्यकथैव सम्प्रति मया--कस्मादिदं--श्रूयताम्--
यः सम्यग्विविनक्ति दोषगुणयोः सारं स्वयं सत्कविः
सोऽस्मिन् भावक एव नास्त्यथ भवेद्देवान्न निर्मत्सरः ॥
एक कवि से किसी ने पूछा--भाई तुम कौन हो ?
कवि——मैं कवि हूँ ।
पुरुष--कोई नई कविता पढ़ो ।
कवि--अब तो मैंने काव्य की चर्चा ही छोड़ दी है ।
पुरुष--यह क्यों ?
कवि--सुनो । जो सत् कवि स्वयं दोष गुण के सार की विवेचना कर सकता है सो भावक नहीं होता ! यदि होता भी है तो निर्मत्सर नहीं होता । तत्त्वाभिनिवेशी भावक तो हज़ार में एक मिलते हैं । बिना भावक के काव्य भी नीरस और निष्फल रह जाता है । वैसे तो घर-घर काव्य पड़े हैं । काव्य वही है जो भावकों के हृदय में अंकित हो गया है ।