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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/४७

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उच्चारण, यति के नियम का परिपालन--ये सब गुण रहते हैं । और उनके सुनने से ऐसा भान होता है कि कान में मधु पड़ रहा है ।

अच्छे पाठ का ढंग यही है कि सभी वर्ण अपने-अपने समुचित स्थान से उच्चरित हों और अपने समुचित रूप में और उनमें वाक्यों के अर्थ के अनुसार विराम हो ।

(७)

काव्यार्थ के--अर्थात् काव्य के विषय के --१६ योनि या मूल हैं--(१) श्रुति, (२) स्मृति, (३) इतिहास, (४) पुराण, (५) प्रमाण-विद्या--अर्थात् मीमांसा और न्याय-वैशेषिक, (६) समयविद्या-अर्थात् अवान्तर दार्शनिक सिद्धांत, (७) अर्थशास्त्र, (८) नाट्यशास्त्र,(९) कामसूत्र, (१०) लौकिक, (११) कविकल्पित कथा, (१२)प्रकीर्णक, (१३) उचितसंयोग, (१४) योक्तृसंयोग, (१५) उत्पाद्य-संयोग, (१६) संयोगविकार ।

इनके कुछ दृष्टांत यहाँ दिये जाते हैं --

(१) श्रुति में लिखा है--‘उर्वशी हाप्सराः पुरूरवसमैलं चकमे’ इतने मूल पर समस्त विक्रमोर्वशी नाटक बना ।

(२) स्मृति में नियम लिखा है कि यदि किसी के ऊपर अधिक ऋण का दावा किया जाय--वह सब का इनकार करे--तो वादी यदि ऋण के कुछ भी अंश को प्रमाणित कर सके तो अभियुक्त को कुल दावा देना होगा ।

इसी आधार पर विक्रमोर्वशी का यह श्लोक है ।

हंस प्रयच्छ मे कान्तां गतिस्तस्यास्त्वया हृता।

विभावितैकदेशेन देयं यदभियुज्यते ॥

उर्वशी से वियुक्त राजा हंस को कहता है--‘हे हंस मेरी प्रियतमा को तुम दे दो । तुमने उसकी गति ली है । और जब कुछ अंश का लेना तुम्हारा प्रमाणित हो गया तब तुम्हें सब दावा चुकाना होगा ।’

(३) इतिहास (रामायण में) रामचन्द्रजी सुग्रीव से कहते हैं--

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