न स संकुचितः पन्था येन बाली हतो गतः ।
समये तिष्ठ सुग्रीय मा बालिपथमन्वगाः ॥
‘अर्थात् जिस मार्ग के आश्रयण से बालि मारा गया उस मार्ग का अनु-सरण मत करो अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर रहो ।”
इसी आधार पर यह श्लोक है--
मदं नवैश्वर्यलवेन लम्भितं विसृज्य पूर्वः समयो विमृश्यताम् ।
जगज्जिघत्सातुरकण्ठपद्धतिर्न बालिनवाहततृप्तिरन्तकः ॥
सुग्रीव को लक्ष्मणजी कहते हैं--‘अभी जो नया राज्य तुम्हें मिला है इसके मद को त्याग कर पहले जो तुमने प्रतिज्ञा की थी उसका विचार करो । यमराज की संसार-संहारेच्छा केवल बालि के मरने से तृप्त नहीं हुई ।’
(४) पुराणों में लिखा है--‘जिन जिन दिशाओं की ओर हिरण्य- कशिपु हँसकर देखता था उन उन दिशाओं को भयभीत देवता लोग नमस्कार करते थे ।’
इसी आधार पर कवि ने लिखा है--
स सञ्चरिष्णुभुंवनत्रयेऽपि यां यदृच्छयाऽशिश्रियदाश्रयः श्रियः।
अकारि तस्यै मुकुटोपलस्खलत्-करैस्त्रिसन्ध्यं त्रिदशैदिशे नमः॥
इसके प्रसंग में यह कहा गया है कि कवि जैसे जितना वेद, स्मृति,पुराण, इतिहास का आश्रयण करता है वैसे ही उतनी ही प्रशंसा का पात्र होता है ।
(५) मीमांसा का सिद्धांत है कि शब्द का अभिधेय सामान्य--जाति है--फिर विशेष भी उसका अर्थ हो जाता है--इसी आधारपर कवि कहता है--
सामान्यवाचि पदमप्यभिधीयमानं
मां प्राप्य जातमभिधेयविशेषनिष्ठम् ।
स्त्री काचिवित्यभिहिते सततं मनो मे
तामेव वामनयनां विषयीकरोति ॥