सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

‘सामान्यवाची भी पद मेरे प्रति विशेषवाची हो गया ? सामान्यतः स्त्रीपद का प्रयोग जहाँ होता है तहाँ हमको उसी वामनयना (मेरी प्रिय-तमा) का भान होता है ।’

फिर न्याय का यह सिद्धांत है, कि ‘निरतिशय ऐश्वर्य से युक्त हो ही कर ईश्वर जगत् का कर्ता होता है ।’ इसी आधार पर कवि कहता है——·

किमोहः किं कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।

अतक्यैश्वयें त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः

कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥

(६) समयविद्याओं म बौद्धसिद्धांत के आधार पर यह श्लोक है--

कलिकलुषकृतानि यानि लोके मयि निपतन्तु विमुच्यतां स लोकः।

मम हि सुचरितेन सर्वसत्वाः परमसुखेन सुखावनी प्रयान्तु ॥

बोधिसत्त्व कहते हैं--‘जितने पाप के फल हैं सब मेरे ऊपर गिरें और मेरे जितने पुण्य हैं उनसे संसार के सब प्राणी सुखी होवें ।’

(७) अर्थशास्त्र के सिद्धांत के आधार पर--

बहुव्याजं राज्यं न सुकरमराजप्रणिधिभिः

‘राजकार्य छल से भरा हुआ है--विना चारों के काम नहीं चल सकता’।

(८) नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के आधार पर--

पार्वती को नृत्य की शिक्षा देते हुए शिव जी की उक्ति--

एवं धारय देवि बाहुलतिकामेवं कुरुष्वांगकं

मात्युच्चैर्नम कुञ्चयाग्रचरणं मां पश्य तावत्स्थितम् ।

‘हे देवि इस तरह बाहु को फैलाओ--शरीर को ऐसा करो-- बहुत नीचे न झुको--पैरों को जरा मोड़ लो--मैं जैसे खड़ा हूँ सो देखो’ ।

(९) कामशास्त्र के आधार पर--

नाश्चयं त्वयि यल्लक्ष्मीः क्षिप्त्वाऽधोक्षजमा गता।


असो मन्दरतस्त्वं तु प्राप्तः समरतस्तया ॥

– ४३ –