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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/५५

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(१) निबन्ध-शुद्ध--

कत कत हमर जनम गेल-कयल न सत उपचार ।

तकर पराभव अनुभव-भेलहुँ जगत के भार ॥

सेवलहुँ हम ने उमावर, केवल छल व्यवहार ।

करुणाकर दुख सुनथि न, दुस्सह दुख के टार ॥

(२) निबन्ध-चित्र--

अनकर अनुचर बनि हम रहलहुँ, सहलहुँ शिव हे नित अपमान ।

अनुचित करम उचित के जानल, आनल शिव हे पतितक दान ।

घरम सनातन एक न मानल, ठानल शिव हे मलिन प्रमान ।

चन्द्र विकल मन पतित के मोर सन-कर जनु शिव हे हृदय पखान ।।

(३) निबन्ध-कथोत्य--

भल भेल भल भेल त्यागल वास

छुटिगेल मोर मन दुरजन त्रास ।

भल भल लोकक वैसव पास

सपनहुँ सुनब न खल उपहास ।

मन न रहत मोर कतहु उदास

‘शिव’ ‘शिव’ रटब जखनधरि श्वास ।

(४) निबन्ध-संविधानकभू--

शिव प्रिय अभिनव गोति प्रीति सँ रचितहुँ

शिवतट विगतविकार भक्ति सँ नचितहुँ ।

महोदार करुणावतार को यचितहुँ

अन्त समय हम काल कराल सं बचितहुँ ।

अछि भरोस मन मोर दया प्रभु करता

शरणागत जन जानि सकल दुख हरता ।

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