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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/६५

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पर तुम घृत कहाँ लाये हो ?” नैयायिक ने कहा, मैंने आज एक बड़े जटिल प्रश्न को हल किया है-“दोना ही घृत का आधार है-घृत दोने का नहीं”। दोनों अपनी-अपनी चतुरता पर प्रसन्न होकर भूखे घर लौट आये ।]

(ख) व्याकरण पढ़कर——नाम, धातु तथा छन्दों में विशेष परिश्रम करके फिर काव्यों के सुनने में यत्न देना । विशेषकर देशभाषा के सरस गीत और गाथाओं को बड़े ध्यान से सुनना । इस तरह सरस काव्यों के सुनने से और उनके रसों में मग्न होने से कवित्व का अंकुर हृदय में उत्पन्न होता है ।

दूसरे दर्जे का शिष्य है ‘कृच्छ्रसाध्य’ । उसके लिए ये उपाय हैं --

कालिदास के सब ग्रन्थों को पढ़ना और उनके एक-एक पद, श्लोक-पाद और वाक्यों का एक चित्त होकर परिशीलन करना। कलिदास के पद्यों का कुछ हेर-फेर कर कुछ पद वा पदांश को छोड़कर अपनी ओर से उनकी पूर्ति करना । छन्द के अभ्यास के लिए पहले-पहल बिना अर्थ के ही वाक्यों की छन्दोबद्ध रचना करना--जैसे--

आनन्दसन्दोहपदारविन्दकुन्देन्दुकन्दोदितबिन्दुवृन्दम् ।

इन्दिन्दिरान्दोलितमन्दमन्दनिष्यन्दनन्दन्मकरन्दवन्धम् ॥

[इस चाल की शिक्षा आजकल के एक परम प्रसिद्ध कवि पण्डित की हुई है । बाल्यावस्था ही में उनके पिता ने उनको सरल छन्दों का ज्ञान करा दिया था--फिर उन्हें कहें ‘श्लोक बना’ । टूटे फूटे शब्दों को जोड़ कर छन्दोबद्ध पद्य बन जाता था--भाषा भी ऊटपटांग ही होती थी । फिर पिताजी उन श्लोकों की टीका बना लेते थे । इस कार्य में पिताजी ऐसे दक्ष थे कि किसी भाषा के कैसे भी वाक्य हों उनका संस्कृत व्याकरण के अनुसार वे अर्थ निकाल लेते थे । रघुवंश के द्वितीय सर्ग की उन्होंने एक टीका लिखी जिसके अनुसार समस्त सर्ग का यह अर्थ निकलता है कि दिलीप वसिष्ठ की गाय को चुरा ले गये । यह टीका सुप्रभात पत्र में छप रही है ।]

इसके अनन्तर प्रसिद्ध प्राचीन श्लोकों में हेर फेर कर उनकी प्रकारान्तर से पूर्ति करना । जैसे रघुवंश का पहला श्लोक है--

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