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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/८८

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पृथूदक के उत्तर ‘उत्तरदेश’ है । इसके जनपद है——शक, केकय, बोक्काण, हूण, बाणायुज, काम्बोज, बाह्लीक, वह्लव, लिम्पाक, कुलूत, कीर, तंगण, तुषार, तुरुष्क, बर्बर, हरहूव, हूहुक, सहुड, हंसमार्ग, रमठ, करकंठ इत्यादि । पर्वत--हिमालय, कलिन्द, इन्द्रकील, चन्द्राचल इत्यादि नदियां--गंगा, सिन्धु, सरस्वती, शतद्रु, चन्द्रभागा, यमुना, इरावती, वित- स्ता, विपाशा, कुहू, देविका इत्यादि । यहाँ उत्पन्न होते हैं--सरल, देवदारु, द्राक्षा, कुंकुम, चमर, अजिन, सौवीर स्रोतोंजन, सैन्धव, वैदूर्य, तुरंग इत्यादि ।

इन सभों के बीच में, अर्थात् काशी से पश्चिम, माहिष्मती से उत्तर, देवसभा से पूरब, और पृथूदक से दक्षिण, जो देश है उसे ‘मध्यदेश’ कहते हैं । ऐसा कवियों का व्यवहार है । शास्त्र के अनुसार ही यह व्यवहार मालूम होता है । क्योंकि मनुस्मृति में लिखा है--

हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्ये यत् प्राग् विनशनादपि ।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।।

विनशन (कुरुक्षेत्र) और प्रयाग--गंगा, यमुना के बीच का देश ‘अन्तर्वेदि’ है । इसी को केन्द्र मानकर दिशाओं का विभाग करना ऐसा आचार्यों का सिद्धांत है । इसमें भी विशेष करके महोदय को केन्द्र मानना । इसके प्रसंग कई तरह के मत हैं । पौराणिक मत है--इन्द्र देवता से अधि-ष्ठित दिशा पूर्व', अग्नि देवता की आग्नेय, यम की दक्षिण, नैऋति की ‘नैऋत्य’, वरुण की ‘पश्चिम’, वायु की 'वायव्य', कुवेर की ‘उत्तर’, ईशान की 'ऐशान', ब्रह्मा की ‘ऊर्ध्व’, नाग की ‘अधः’। वैज्ञानिक सिद्धांत में ताराओं के अनुसार यों है--चित्रा, स्वाती के बीच ‘पूर्व’ उसके सामने (पश्चिम), ध्रुव तारा की ओर 'उत्तर', उसके सामने ‘दक्षिण’। इनके बीच में अवान्तर दिशाएँ हैं । कवियों में ये सब व्यवहृत हैं ।

जिस देश की जैसी स्थिति, पर्वत, नदी इत्यादि हैं वैसा ही वर्णन करना उचित है ।

भिन्न-भिन्न देशवासियों के शरीर के रंग के प्रसंग में राजशेखरसिद्धांत यों है--

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