कहते हैं । दोनों पक्षों का एक ‘मास’ जिसके आदि में शुक्ल पक्ष पीछ कृष्णपक्ष होता है । यह मान ‘पित्र्य’ कहलाता है । वैदिक क्रियाएँ सब इसी मान के अनुसार होती हैं । ‘पित्र्य’ मास के पक्षों का व्यत्यास कर देने से ‘चान्द्र’ मास होता है, जिसके आदि में कृष्णपक्ष पीछे शुक्लपक्ष होता है । आर्यावर्त के वासी और कवि इसी चान्द्रमास का अवलम्बन करते हैं । ऐसे दो पक्षों का ‘मास’, दो मासों का ‘ऋतु’, छः ऋतुओं का ‘संवत्सर’ । संवत्सर चैत्र मास से आरंभ होता है ऐसा ज्योतिषियों का सिद्धांत है, श्रावण से आरम्भ होता है ऐसा लोकव्यवहार प्रसिद्ध है । नभ-नभस्य (श्रावण-भादों) वर्षा-ऋतु । इष-ऊर्ज (आश्विन-कार्तिक) शरत् । सह-सहस्य (अगहन-पूस) हेमन्त । तप-तपस्य (माघ-फाल्गुन) शिशिर । मधु-माधव (चैत-वैशाख) वसन्त । शुक्र-शुचि (जठ-आसाढ़) ग्रीष्म ।
वर्षा-ऋतु में पूर्वीय हवा बहती है, ऐसी कवि प्रसिद्धि है । वस्तुस्थिति एसी नहीं भी हो तथापि वर्णन ऐसा ही होना चाहिए । शरत् ऋतु में किधर की वाय होगी सो नियमित नहीं है । हेमन्त में पश्चिम वाय——ऐसा कुछ लोगों का सिद्धांत है । कुछ लोग ‘उत्तर’ कहते हैं । असल में दोनों ठीक हैं पाँचवाँ । शिशिर में भी हेमन्त की तरह पश्चिम वा उत्तर, वसन्त में दक्षिण वायु बहती है । वसन्त में वायु का नियम नहीं है ऐसा कुछ लोग कहते हैं । कुछ लोग ‘नैऋत’ बतलाते हैं ।
ऋतुओं के वर्णन में इनकी चार अवस्थाओं का वर्णन उचित है । ये अवस्थाएँ हैं——सन्धि, शैशव, प्रौढि, अनुवृत्ति । दो ऋतुओं के बीच के समय को ‘ऋतुसन्धि’ कहते हैं । [‘शैशव’ है आरम्भ का समय, ‘प्रौढि’ पूर्ण परिणतावस्था का समय । एक ऋतु के बीतने पर भी जिस समय कुछ-कुछ उसके चिह्न दिखाई देते हैं उसे बीते ऋतु की ‘अनुवृत्ति’ कहते हैं । जैसे कमल फूलने का ऋतु है ग्रीष्म——पर कभी-कभी कहीं-कहीं वर्षा के आने पर भी कमल फूलते देखे जाते हैं]
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यह तो हुई प्राचीनों के अनुसार कवि-शिक्षा-प्रणाली । पर आज-
कल के उत्साही कवियों को इससे हतोत्साह नहीं होना चाहिए। संस्कृत