पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/९१

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में १००,१५० बरस का पुराना एक ग्रन्थ है ‘कविकर्पटिका’। इसमें ग्रन्थ-कार की प्रतिज्ञा है——

यत्नादिमां कण्ठगतां विधाय श्रुतोपदेशाद् विदितोपदेशः।

अज्ञातशब्दार्थविनिश्चयोऽपि श्लोकं करोत्येव समासु शीघ्रम् ॥

अर्थात् इस ग्रन्थ को जो कण्ठस्थ कर लेगा सो शब्दार्थ को नहीं जानते हुए भी सभाओं में शीघ्र श्लोक बना सकेगा । इसका प्रकार यों है । अनुष्टुप् छन्द में चन्द्रमा का वर्णन करना है । इसके लिए बहुत से समुचित शब्दान् का संग्रह है । (१) आदि के पाँच अक्षर के शब्द--‘कर्पूरपूर’, ‘पिण्डीरपिण्ड’, ‘गंगाप्रवाह’ इत्यादि । (२) तदुत्तर तीन अक्षर के शब्द--‘नीकाशं’, ‘संकाशं’, ‘संस्पर्धि’ इत्यादि । (३) द्वितीयपाद में दो अक्षर के-- ‘वपुः’, ‘तेजः’, ‘दीप्तिः’ इत्यादि । (४)द्वितीयपाद म इसके बाद--‘यस्य’, या ‘तस्य’। (५) फिर तीन अक्षर के पद--‘प्रसाद्यते’, ‘विलोक्यते’, ‘प्रतीक्ष्यते’ इत्यादि । (६) तृतीयपाद में आदि के तीन अक्षर--‘चन्द्रोऽयम्’, । (७) फिर तृतीय पाद में पाँच अक्षर--‘राजते रम्यः’, ‘शोभते भद्रः’,‘भासते भास्वान्’ । (८) चतुर्थपाद के आदि तीन अक्षर--‘नितान्तम्’, ‘नियतं’, ‘सुतराम्’ । (९) चतुर्थपाद के अन्तिम पाँच अक्षर--‘कामिनी- प्रियः’, ‘जनवल्लभः’, ‘प्रीतिवर्धनः’ ।

इतना जिसे अभ्यास रहेगा सो मनुष्य सभा में चन्द्रवर्णन के प्रस्ताव में शीघ्र ही ये तीन श्लोक पढ़कर सुना देगा।

कर्पूरपूरनीकाशं वपुर्यस्य प्रसाद्यते ।

चन्द्रोऽयं राजते रम्यो नितान्तं कामिनीप्रियः॥१॥

पिण्डोरपिण्डसंकाशं तेजो यस्य विलोक्यते ॥

चन्द्रोऽयं शोभते भद्रो नियतं जनवल्लभः ॥२॥

गंगाप्रवाहसंस्पधि दीप्तिर्यस्य प्रतीक्ष्यते ।

चन्द्रोऽयं भासते भास्वान् सुतरां प्रीतिवर्धनः॥३॥

इसी तरह और लम्बे छन्दों की पदावली दी गई है ।

कवि होने का कैसा सुगम मार्ग है !

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