पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

श्रवण मकर-कुडल लसत, मुख सुखमा एकत्र ।

शशि समीप सोहत मनो श्रवण मकर नक्षत्रं ॥

[केशवदास-रामचन्द्रिका (राम का नखशिख,]
 

भाल बिसाल ललित लटकन वर, बालदसा के चिकुर सोहाये ।

मनु दोउ गुरु सनि कुज आगे करि ससिहि मिलन तम के गन आये ।।

[तुलसीदास——गीतावली]
 

चाणक्य (कूटनीति) परिचय

जाकी धन धरती लई ताहि न लीजै संग ।

जो संग राखे ही बनै तो करि डारु अपंग ।।

तौ करि डारु अपंग फेर फरकै सो न कीजै ।

कपट रूप बतराय तासु को मन हर लीजै ।

कह गिरधर कविराय खुटक जै है नहि वाकी।

कोटि दिलासा देब, लई धन धरती जाकी ।

[गिरिधर कविराय]
 

तेरह मंडल मंडित भूतल भूपति जो क्रम ही क्रम साधै ।

कैसेहु ताकहँ शत्रु न मित्र सुकेशवदास उदास न बाधै ।

शत्रु समीप, परे तेहि मित्र से, तासु परे जो उदास कै जोवै ।

विग्रह संधिन दाननि सिंधु लौं लै चहुँ ओरनि तौ सुख सोवै॥

[केशवदास——रामचन्द्रिका]
 

मोक्षोपायपरिचय

मुक्तिपुरी दरबार के, चारि चतुर प्रतिहार ।

साधुन को सतसंग, सम, अरु संतोष, विचार ।

चारि में एकह जो अपनावै ।

तो तुम पै प्रभु आवन पावै ।।

[केशवदास——रामचन्द्रिका]
 
-८८ -