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पृष्ठ:कवि-रहस्य.djvu/९७

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योगपरिचय

हमरे कौन जोग व्रत साधै ?

मगत्वच, भस्म, अधारि, जटा को, को इतनो अवराधै ?

जाकी कहूँ थाह नहिं पैये अगम अपार, अगाधै।

गिरिधरलाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?

आसन, पवन, विभूति, मृगछाला, ध्याननि को अवराधै ?

सूरदास मानिक परिहरि के राख गाँठि को बाँधै ?

संगीतपरिचय

अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ।

काम क्रोध को पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल ।

महामोह के नूपुर बाजत, निंदा शब्द रसाल ।

भरम भरयो मन भयो पखावज, चलत कुसंगति चाल ॥

तृस्ना नाद करत घट भीतर नाना विधि दै ताल ।

माया को कटि फेंटा बाँध्यो, लोभ तिलक दै भाल ।।

कोटिक कला काँछि देखराई, जल थल सुधि नहिं काल ।

सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल ॥

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क्षेमेन्द्र ही का एक और ग्रन्थ बड़े चमत्कार का है, 'औचित्य- विचारचर्चा'। इसमें एक एक पद्य उदाहरण देकर दिखलाया है कि रचना में कवि को कितनी सावधानता अपेक्षित है । और इस सावधानता से सामान्य वाक्यों में भी कैसी सरसता——और थोड़ी ही असावधानता से कैसी विरसता——आ जाती है । इनके कुछ उदाहरणार्थ हिन्दी-कवियों के कुछ पद्य उद्धृत किए जाते हैं ।

गुण-औचित्य

(परशुरामगर्वोक्ति——ओज)

भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंड खंडयौ

चंड बाहुदंड जाको ताही सों कहतु हौं ।

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