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सिंहगढ़-विजय
 

वे कल संध्या तक और कुछ नहीं चाहते।'

'यह तो तुम जानते ही हो, वह मैं न दे सकूँगा।'

तानाजी चुप रहे। महाराज भी चुप हो गए। वे चंचल गति से इधर-उधर घूमने लगे।

एक प्रहरी ने सम्मुख आकर कहा-महाराज, एक फिरंगी दुर्ग-द्वार पर उपस्थित है, दर्शनों की विनती करता है। महाराज ने चकित होकर कहा-फिरंगी? वह कहां से आया है?

'सूरत से आ रहा है।'

'साथ में कौन है?'

'दो सवार हैं।'

'क्या चाहता है?'

'महाराज से मुलाकात करना।'

क्षण-भर महाराज ने कुछ सोचा, इसके बाद तानाजी को आज्ञा दी-उसे महल के बाहरी कक्ष में ले आयो। तानाजी ने 'जो आज्ञा' कहकर प्रस्थान किया, और महाराज भी कुछ सोचते हुए महल की ओर चले गए।

'तुम्हारा देश कौन-सा है?'

'मैं फ्रांस देश का अधिवासी हूं।'

'क्या चाहते हो?'

'महाराज, मैं कुछ हथियार बीजापुर के बादशाह के हाथ बेचने लाया था, परन्तु यहां आने पर आपकी यशोगाथा का विस्तार प्रजा में सुनकर इच्छा होती है, वे हथियार मैं आपको दे दूं, यदि महाराज प्रसन्न हों। मेरे पास पचास तो छोटी विलायती तोपें, पांच हज़ार बंदूकें और इतनी ही तलवारें हैं। सभी हथियार फ्रांस देश के बने हुए हैं। और भी युद्ध-सामग्री है।'

महाराज ने मंद हास्य से पूछा-उनका मूल्य क्या है?

'महाराज को मैं यह सब दस लाख रुपये में दे दूंगा। यद्यपि माल बहुत अधिक मूल्य का है।'

महाराज की दृष्टि विचलित हुई। परन्तु उन्होंने दृढ़, गंभीर स्वर से कहा-मैं कल इसी समय इसका उत्तर दूंगा। अभी तुम विश्राम करो।

क-१२