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सिंहगढ़-विजय
 

सके। घोड़े, शस्त्र और खज़ाना तानाजी ने कब्जे में कर लिया। सूर्य की लाल-लाल किरणे पूर्व में उदय हुईं । तानाजी ने देखा, दूर से गर्द का पर्वत उड़ा आता है। उन्होंने सभी ग्रामवासियों को एकत्र करके कहा--सावधान रहो, महाराज पा रहे हैं।

महाराज ने घोड़े से उतरकर तानाजी को गले से लगा लिया। ग्रामवासियों ने महाराज की पूजा की, और लूटा हुआ सभी माल लेकर शिवाजी अपने किले में लौटे। इस प्रकार संयोग, प्रारब्ध और उद्योग ने सोलह पहर के अंतर में ही असहाय महाराज शिवाजी को सर्व-साधन-सम्पन्न बना दिया, जिसके बल पर वे अपना महाराज्य कायम कर सके।

स्तब्ध रात्रि के सन्नाटे में सैनिकों का प्रशांत दल चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था। सकरी पगडंडी के दोनों ओर ऊंचे-ऊंचे सरकंडे के झाड़ खड़े थे। तारों के क्षीण प्रकाश में घोड़ों को कष्ट होता था, पर सेना की अबाध गति जारी थी।

हठात् सैनिक रुक गए। अग्रगामी सैनिक ने पंक्ति से पीछे हटकर कहा-

श्रीमान, बस यही स्थान है।

'आगे रास्ता नहीं?'

'नहीं श्रीमान।'

'तब यहां से क्या उपाय किया जाए?'

'इस ढालू चट्टान पर चढ़ना होगा।'

'यह बहुत कठिन है।'

'परन्तु दूसरा उपाय ही नहीं है।'

'तब चढ़ो।' सेनानायक चट्टान को दोनों हाथों से दृढ़ता से पकड़कर खड़ा हो गया।

देखते-देखते दूसरा सैनिक छलांग मारकर चट्टान पर हो रहा, और सेनानायक को खींच लिया। उस बीहड़ और सीधी खड़ी चट्टान पर धीरे-धीरे ये हठी सैनिक उस दुर्भेद्य अन्धकार में चढ़ने लगे। दुर्ग-प्राचीर के निकट आकर नायक ने कहा-अब रस्सियां चाहिए।

'रस्सियां उपस्थित हैं।'