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सिंहगढ़-विजय
 

सेनापति के मोढ़े पर तलवार लगी, और रक्त की धार बहने लगी। उसने तड़पकर एक हाथ तानाजी की जांघ में मारा। जांघ कट गई।

तानाजी ने गिरते-गिरते एक बर्छा सेनापति की छाती में पार कर दिया। दोनों वीर घोड़ों से गिर पड़े।

अब सेना में घमासान मच गया। उदयभानु की राजपूत सेना और यवन सेना परास्त हुई। सूर्योदय से पूर्व ही किले पर भगवा झंडा फहराने लगा।

लाशों के ढेर से तानाजी का शरीर निकाला गया। अभी तक उसमें प्राण था। थोड़े उपचार से होश में आकर उन्होंने कहा-क्या किला फतह हो गया?

'हां महाराज।

'यवन-सेनापति क्या जीवित हैं?'

यवन-सेनापति भी जीवित था। उसका शरीर भी वहीं था। तानाजी ने क्षीण स्वर में पुकारा-सेनापति!

'काफिर!'

'पहचानते हो?'

'दुश्मन को पहचानना क्या? तुम कौन हो?'

'पन्द्रह वर्ष प्रथम जिसे अाक्रांत करके तुमने उसकी बहिन का हरण किया था।'

सेनापति उत्तेजना के मारे खड़ा हो गया। फिर धड़ाम से गिर गया, उसके मुख से निकला-तानाजी!

'आज बहिन का बदला मिल गया।'

यवन सेनापति मर रहा था, उसका श्वास ऊर्ध्वगत हो रहा था, और आंखें पथरा रही थीं। उसने टूटते स्वर में कहा-तुम्हारी हमशीरा और बच्चे इसी किले में हैं, उनकी हिफाज़त यवन सेनापति मर गया। तानाजी की दशा भी अच्छी नहीं थी, परन्तु ये शब्द उन्होंने सुन लिए। उन्होंने टूटते स्वर में कहा-महाराज से कहना, तानाजी ने जीवन सफल कर लिया। महाराज बहिन की रक्षा करें।

तानाजी ने अन्तिम श्वास लिया!

शुभ मुहूर्त में छत्रपति महाराज ने सिंहगढ़ में प्रवेश किया।

प्रांगण में विषण्ण-वदन सैनिक नीची गर्दन किए खड़े थे। घोड़े से उतरते हुए