दिन नैष्ठिक ब्राह्मण नन्दकुमार को कलकत्ता में फांसी दी गई, तब ये ब्राह्मण और इनके शास्त्र कहां चले गए थे? इन्होंने शाप देकर अंग्रेजों को क्यों नहीं भस्म कर दिया? ये ढोंगी, पाखण्डी, मूर्ख, घमण्डी ब्राह्मण एक धर्मात्मा रानी का ही नहींदेवता का भी तिरस्कार करने में नहीं शर्माये। आप जाति से शूद्र हैं, इसलिए आपके द्वारा प्रतिष्ठित देवता का पूजन-नमन भी ये नहीं करेंगे? मैं चाहता हूं कि इन सब ब्राह्मणों को गोली से उड़ा दूं, और हिन्दू-धर्म को इनकी दासता से मुक्त करा दूं।'
रानी ने हाथ जोड़कर कहा-आप तेजस्वी ब्राह्मण हैं। जो चाहे कहें पर मैं, स्त्री हूं, शूद्र हूं, असहाय हूं, मैं कुछ नहीं कह सकती। मैं तो यही समझती हैं कि मेरा पुण्य सफल हो गया। देवता की प्रतिष्ठा हो गई, और मेरा धन सत्कर्म में लग गया। अब मैं प्रसन्न हूं।
'आप शरीर से ही शूद्रा नहीं हैं, आपका मन भी इन ब्राह्मणों की दासता में फंसा है। आप आत्म-सम्मान खो चुकी हैं। नहीं तो इतना अपमान करनेवाले इन ब्राह्मणों का तो आपको मुंह भी न देखना चाहिए था।'
'ऐसा मत कहिए। ब्राह्मण पृथ्वी का स्वामी हैं। वह भूसुर हैं।'
'पर वह ब्राह्मण हो भी तो? जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में करके वासना से मुक्ति पा ली हो, और जो सब बन्धनों से मुक्त वीतराग-शान्त महात्मा होवही तो ब्राह्मण है। ये दक्षिणा के लोभ में निमन्त्रण खानेवाले पेटू ब्राह्मण के रूप में बैल हैं।'
'आप समर्थ हैं जो चाहे कहिए, परन्तु कृपाकर भोजन कर लीजिए। आप भोजन कर लें तो मैं भी ठाकुर का चरणामृत लूं।'
'कह तो चुका, अपने हाथों से भात रांधकर देंगी तो ही भोजन करूंगा, नहीं तो नहीं।'
'मैं ब्राह्मण को अपने हाथ का भात कैसे खिला सकती हूं?'
'विश्वास रखिए महारानी, आपका भात खाकर भी मैं ऐसा ही ब्राह्मण रहूंगा। मैं कच्चा ब्राह्मण नहीं हूं। मेरा ब्राह्मणत्व खूब पक्का है।'
'परन्तु ब्राह्मण सुनेंगे तो आपको जातिच्युत कर देंगे।'
'मैं तो प्रथम ही इन सब भोजन-भट्टों को जातिच्युत कर चुका हूं। वे अब मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।'