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रानी रासमणि
 

'मैं ब्राह्मण के हाथ से पृथक् भोजन आपके लिए बनवा देती हूं।'

'ब्राह्मण के हाथ का भात तो मैं खोऊंगा नहीं। आप ही के हाथ का भात खाऊंगा। आप मातृरूपा हैं। जगद्धात्री का स्वरूप हैं। तन-मन से शुद्ध हैं। आपके हाथ का भात खाकर मैं उन सव ब्राह्मणों के कुकृत्य का परिशोध करूंगा, जिन्होंने शूद्र कहकर अपका अपमान किया है।'

'तो फिर मेरे महल में पधारिए।'

'न, न, यहीं भात रांधिए। यहीं सब ब्राह्मणों के सामने खाऊंगा।'

रानी ने फिर आग्रह नहीं किया। उसने बालक से कहा-रामकृष्ण भैया, त इसी वटवृक्ष के नीचे सब सामग्री जुटा दे। मैं अभी गंगा-स्नान करके आती हूँ।

बालक ने आनन्दातिरेक से ताली पीटकर कहा-मां, मैं भी तुम्हारा भात खाऊंगा।

रानी ने जवाब नहीं दिया। वह आंचल से आंखें पोंछती हई घाट की ओर चली गई। बालक भी तेजी से भण्डार की ओर चला। ब्राह्मण पत्थर की मूर्ति की भांति बैठा रहा।

आग की भांति सर्वत्र दक्षिणेश्वर में यह खबर फैल गई कि एक ब्राह्मण शूद्रा रानी के हाथ का भात खाएगा। रानी उसके लिए भात रांध रही है। नैष्ठिक ब्राह्मण भीत-चकित होकर एक-दूसरे को देखने लगे। उनका अभिप्राय यह था कि घोर कलियुग आ गया है; अब धर्म नहीं बच सकता।

बहुत ब्राह्मण वटवृक्ष के नीचे जमा हो गए, जहां रानी भात रांध रही थी और वह ब्राह्मण पत्थर की मूर्ति की भांति निश्चल बैठा था। एक ब्राह्मण ने कहाः

'तुम ब्राह्मण हो कि चमार?'

'मैं ब्राह्मण हूं।'

'कौन ब्राह्मण हो?'

'पाण्डे हूं। बीस विश्वे का।'

'नाम क्या है तुम्हारा ?'

'गोपाल पाण्डे मेरा नाम है।'

'काम क्या करते हो?'

'पाखण्ड और अत्याचार का विरोध करता हूं।'