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रानी रासमणि
२४९
 

'रहते कहां हो?'

'बारह बरस से देश-भर में घूम रहा हूं।'

'तो तुम शूद्रा के हाथ का भात क्यों खाते हो?

'मैं साक्षात् जगद्धात्री अन्नपूर्णा के हाथ का भात ग्रहण कर रहा हूं, इससे मेरा और सब ब्राह्मणों का भी कल्याण होगा।'

'तुम चमार हो!'

'चमार तो वे हैं जो चमड़े की परख कर जाति का पता लगाते हैं।'

'और तुम?'

'मैं ब्रह्मज्ञानी हूं। मैं ब्रह्म की एकता को जानता हूं।'

विवाद होता रहा, और ब्राह्मण शान्त भाव से उन सभी का उत्तर देता रहा। उसने राम और शिव के उदाहरण दिए। धर्मशास्त्र और महाभारत के प्रमाण दिए, और जात-पांत की कट्टरता का पूरा विरोध किया।

अन्त में केले के पत्ते पर रानी ने भात परसा। ब्राह्मणों के देखते ही देखते वह बालक भी भात खाने आ बैठा। राधामाधव के शृंगारकर्ता को रानी के हाथ का भात खाते देखकर ब्राह्मण बौखला गए। वे बड़ी देर तक गर्जन-तर्जन करते रहे, और फिर चले गए।

ब्राह्मण ने भोजन करके कहा-बस मां, अब मैं जाऊंगा। आपसे एक अनुरोध करता हूं, आप मानेंगी?

'आप जो कहेंगे वही मैं करूंगी।'

'तो सुनिए। बारकपुर की छावनी में जो बड़े साहब हैं कमांडिंग जनरल, उनकी स्त्री का नाम शुभदा देवी है। वह ब्राह्मण कन्या है। वह आप ही की भांति निष्ठावाली स्त्री है। भारत में शीघ्र ही एक महा उत्पात उठेगा। एक ज्वालामुखी का विस्फोट होगा, जिनमें सब अंग्रेज फिरंगी भस्म हो जाएंगे। मेरा आपसे अनुरोध है, कि आप उनसे जाकर मिलें। उन्हें अपनी सखी और मित्र बनाएं, और विपत्ति के समय उन्हें अपने यहां रक्षण दें। मैंने उसे सौभाग्यवती रहने का आशीर्वाद दिया है। मेरे इस आशीर्वाद को आप सफल कीजिए। सम्भव है मैं समय पर उन तक न पहुंच सकूँ इसीसे यह भार आपको सौंपता हूं।'

इतना कहकर वह ब्राह्मण तेजी से वहां से चल दिया। उसने मुंह फेरकर भी नहीं देखा। रानी एक मुहूर्त तक उसी ओर देखती रही जिस ओर वह अद्भुत