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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२५१

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रानी रासमणि
 

ब्राह्मण गया था।

जानबाज़ार की रानी रासमणि मुलाकात के लिए आई हैं, यह सूचना पाते ही शुभदा एकबारगी ही व्यस्त हो उठी और बंगले के बाहर चली आई। बाहर आकर देखा-बहुमूल्य कमखाब से ढकी एक पालकी सहन में लगी थी, और लकदक सुनहरी पोशाक पहने पाठ कहार उसकी बगल में खड़े थे। उनके पीछे पन्द्रह-बीस सवार बन्दूकें लिए लाल और हरी बानात के अंगे पहने, साफे बांधकर खड़े थे। सहन से बाहर मैदान में एक हाथी सुनहरी झूल से सुसज्जित संड हिला रहा था। फाटक से सटकर रानी के दीवान महेशचन्द्र चट्टोपाध्याय मूल्यवान रेशमी चादर कन्धे पर डाले खड़े थे। उनके पीछे आठ बहेंगी रखी थीं, उनपर बहुत-से थाल, झाबे भौर सन्दूक थे। थालों और झाबों में मिठाइयां, पकवान और बक्सों में कीमती वस्त्र भरे थे।

शुभदा देवी को देखते ही रानी रासमणि पालकी से निकल आईं, उन्होंने शुभदा की चरणरज ली। शुभदा देवी ने उन्हें रोककर कहा-हैं, हैं, यह आप क्या कर रही हैं?

रानी ने हंसते हुए कहा-आप उम्र में मेरी बेटी के बराबर हैं, पर आप ब्राह्मण की बेटी हैं, मैं शूद्र हूं। आपकी चरण-रज लेना मेरा धर्म है। मैं जानबाजार की रानी रासमणि हूं। आपके पिता का गांव मेरी ही ज़मींदारी में है। आपके पिता मेरे पति के विद्यागुरु थे। आपके सम्बन्ध में बहुत दिन हुए मैंने सुना था। पर आप यहां हैं, यह नहीं जानती थी। अब जाना तो दर्शन करने चली आई।

'मेरा बड़ा भाग्य जो आपने दर्शन दिए। बड़ी कृपा की आपने। आपका शुभ नाम और धवल यश मैं सुन चुकी हूं-आप तो पुण्य-दर्शना हैं। दक्षिणेश्वर भी मैं देख आई हूं-बड़ा सुन्दर देवधाम बनाया है आपने। किन्तु आप मुझे बेटी कहती हैं, फिर भी 'आप' कहकर क्यों बोलती हैं तथा दर्शन करने आई हैं, यह क्यों? दर्शन देने आई हैं, यह क्यों नहीं कहतीं?'

रानी ने हंसकर शुभदा देवी की ठोड़ी उंगली से छूकर उंगलियों की पोर चूमकर कहा- अच्छा, बेटी, तुम कहती ही हो तो 'आप' नहीं कहूंगी। पर तुम ब्राह्मण हो, ब्राह्मण की बेटी हो, हमारी पूज्य हो।

'ब्राह्मण हूं, ब्राह्मण की बेटी हूं, पर यह सब ऊंच-नीच के और जात-पात के