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पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/६३

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प्रतिशोध स्वयं विचार कीजिए कि मैं पतिता हूं या मुझे पतित बनानेवाले पतित हैं?

मैंने कुछ उत्तर नहीं दिया। चित्त ग्लानि से भर गया था। कुछ पढ़ने की चेष्टा की परन्तु तबियत नहीं लगी।

शाम को दिल्ली स्टेशन पर उतरकर उससे विदा होने के समय मैंने उसका पता नोटकर लिया और फिर कभी मिलने का वादा करके उसे पवित्र जीवन व्यतीत करने का परामर्श दिया। पण्डितजी आगरा होकर पहले ही मथुरा चले गए थे। इस बात को बहुत दिन बीत चुके थे। मैं दिल्ली से कलकत्ता लौट आया था। रविवार का दिन था और मई का महीना; सख्त गरमी पड़ रही थी। शाम को भांग-बूटी छानकर हम लोग किले के मैदान की ओर टहलने जा रहे थे। रास्ते में एक पुराने मित्र मिल गए। जब मैं बनारस रहता था तो इनसे बड़ी घनिष्ठता थी।

कुशल-प्रश्न तथा अन्यान्य बातों के बाद पण्डित मुरलीधर का ज़िक्र आया तो आश्चर्य से बोल उठे-अरे तुम्हें मालूम नहीं? वे तो एक खून के मामले में गिरफ्तार हैं।

मैंने आश्चर्य से पूछा-खून के मामले में?

वे बोले-हां भई, उन्होंने पुलिस के दारोगा को मार डाला है।

मैंने कहा-क्या बक रहे हो?

कहां पं० मुरलीधर और कहां दारोगा का खून।

उन्होंने कहा-बक नहीं रहा हूं, बिलकुल सच्ची बात बता रहा हूं।

'तो क्या किसी राजनीतिक उद्देश्य से पण्डितजी ने दारोगा को मार डाला है?

'नहीं जी, राजनीति से उनका क्या वास्ता।'

'तो आखिर बेचारे दारोगा ने उनका बिगाड़ा ही क्या था?'

'उनका नहीं, बल्कि किसी और का ही बिगाड़ा था।'

'अच्छा, तो अब पूरी कथा सुनाओ।'

-सुना तो रहा हूं, परन्तु तुम सुनते कहां हो? बात यह है कि गत यमद्वितीया के अवसर पर पण्डितजी मथुरा जा रहे थे। रास्ते में एक वेश्या से मुलाकात हो गई, जो गाड़ी के उसी डिब्बे में बैठी थी। बातचीत के सिलसिले में उसने अपनी आत्मकथा सुनाना प्रारम्भ किया, जिससे मालूम हुआ कि वह कोई साधारण वेश्या नहीं, वरन किसी उच्चवंश की लड़की थी। दारोगाजी ने ढलती उम्र में जबर्दस्ती