कमर में हाथ डाले थिरक-थिरककर नाचते तो देखिए ? और उसके बाद झुक-झुककर उनके सामने जमनास्टिक की जैसी कसरत करते और विनयाञ्जलि भेंट करते और बदले में करपल्लव का चुम्बनाधिकार, और सहारा देकर उठाने की सेवा का भार, इससे अधिक प्रारब्धानुसार । बस, अब कुछ न कहेंगे।
सन् १६०८ का सुन्दर प्रभात था । मई मास समाप्त हो रहा था । भारतवर्ष ज्वलन्त उत्ताप से भट्ठी बन रहा था, पर शिमला-शैल पर वह प्रभात सुन्दर शरद्के प्रभात की भांति निकल रहा था । एक दस वर्ष की बालिका एक तितली को पकड़ने के प्रयत्न में घास पर दौड़-धूप कर रही थी। उसके शरीर पर ज़री के काम की सलवार, एक ढीला रेशमी पंजाबी कुरता और मस्तक पर अतलस का दुपट्टा था,जो अस्त-व्यस्त हो रहा था। बालिका सुन्दरी तो थी, पर कोई अलौकिक प्रभा उसमें न थी। परन्तु उसके ओष्ठ और नेत्रों में अवश्य एक अद्भुत चमत्कार था। सुन्दर, स्वस्थ और सुखद जीवन ने जो मस्ती उसके इस बाल-शरीर में भर दी थी, उसे यौवन के निकट भविष्य-आक्रमण के पूर्व रूप ने कुछ और ही रंग दे रखा था। वह मानो कभी आपे में न रहती थी, वह सदा बिखरी रहती थी। उल्लास, हास्य, विनोद और मस्ती, यही उसका जीवन था । हम पहले ही कह चुके हैं कि इस बालिका के सारे अंगों में यदि कोई अंग अपूर्व था तो होंठ और आंखें थीं। हम कह सकते हैं कि मानो उसके प्राण सदैव इन दोनों अंगों में बसे रहते थे। वह देखती क्या थी खाती थी। बहुत कम उसकी दृष्टि स्थिर होती थी। पर क्षण-भर भी यदि वह किसीको देखती तो कुछ बोलने से प्रथम एक-दो बार उसके होंठ फड़कते थे- ओफ ! कौन कह सकता है कि उन होंठों के फड़कते ही उन नेत्रों से जो धारा निकलती थी, उसमें कितना मद हो सकता था। पृथ्वी पर कौन ऐसा जन्तु होगा कि जो उन नेत्रों के अधीन न हो जाए और उन होंठों की फड़कन के गम्भीर गर्त में छिपे निनाद को अर्थसहित समझने का अभिलाषी न हो।
इन दोनों वस्तुओं के बाद और एक तीसरी वस्तु थी, जो इन दो वस्तुओं के बाद ही दीख पड़ती थी। वह थी वह धवल दन्त-पंक्ति, वह दन्त-पंक्ति, जो बड़ी कठिनाई से कदाचित् ही ठीक-ठीक प्रकट दीख पड़ती हो। उज्ज्वल, सुडौल श्वेत रेखा की, उन फड़कते होंठों के बीच से अकस्मात् प्रस्फुटित होने की, कल्पना तो कीजिए।
परन्तु एक दस वर्ष की बालिका का ऐसा नख-शिख वर्णन! पाठक हमारी