बाबू आनन्द मोहन बोस । । शरीरस्य गुणानां च दूर मत्यन्तमन्तरम् । 'शरीरं क्षणविध्वंसि कल्पान्तस्थायिनो गुणाः॥ हेग बायू प्रानन्द मोहन बोस महोदय का शरीर इस जगत में नहीं है परन्तु उनके नाम और गुण का प्रकाश सारे संमार में फैश रहा है। भारतवर्ष माज कल बहुत ही कुछ गिरी दशा में है परन्तु तो भी उसमें समय समय पर ऐसे मानवरत्न उत्पन्न हो जाते हैं जो भारत माता के मस्तिक को ऊंचा किए हुए हैं। 'भारत के मपृत अपने गुण, कर्म और स्वभाव से, 'भारत माता का नाम रवगर्भा है' यह सार्थक करके दिखला देते हैं। बाबू आनन्द मोहन योस तम्ही मुखोवलकारी. पुरुषों में से थे। संसार में कोई विद्या लाभ कर फे बड़ा होता है, कोई कार्य करके यड़ा होता है, कोई नीतिवान भषया 'धर्मज्ञ होने से बड़ा समझा जाता है; परन्तु बाबू भानन्द मोहन घोस में ये सब गुण प्राफर एकत्रित हुए थे। विद्या का अगाध ज्ञान, कार्य करने की अंपूर्व क्षमता और दक्षता, विलक्षण नीति और धर्म में अपूर्व भक्तिं और श्रद्धा; सय आपमें एक दूसरे से अधिक थे ! अतएय यह यात स्पष्ट रूप से बताने में कठिनाई कि इन गुणों में से कौन सा गुण आपमें अधिक था। आपका जन्म सन् १८४८ में, बङ्गाल प्रांत के अन्तर्गत जयसिद्धि जिला मैमन सिंह में हुआ था। आपके पिता का नाम बाबू पद्मलोचन बोम था। पद्म लोचन घायू उस समय मैमन सिंह में सरिश्तेदार थे। अतएय आनन्द मोहन ने यहीं जाकर लिखना पढ़ना प्रारम्भ किया। लड़कपन में आपका चित्त लिखने पढ़ने में नहीं लगता था। खेलमा
- शरीर में और गुण में घड़ा अन्तर है । मनुष्य का शरीर क्षण भर
में नष्ट हो जाता है पर उसमें जो गुण रहता है वह पाल्पान्त तक स्थित रहता है। अर्थात् उसने गुण की पर्चा नहीं मिटती सदा पनी रहती है।