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अंक ३, दृश्य ८
(परिवर्तित दृश्य। समुद्र में नौका पर विलास और लालसा। सब नागरिक उस पर स्वर्ण फेकतें हैं। नाव डगमगाती है, लालसा का क्रन्दन-'सोने से नाव डूबी, अब नहीं, बस'। तुमुल तरंग। परिवर्तित दृश्य में अंधकार। दूसरी ओर आलोक। फूलों की वर्षा)
(समवेत स्वर से गान)
खेल लो नाथ, विश्व का खेल।
राजा बनकर अलग न बैठो, बनो नहीं अनमेल॥
वही भाव लेगी फिर जनता, भूल जायगी सारी समता।
कहाँ रही प्यारी मानवता, बढ़ी फूट की बेल॥
रुदन, दुःख, तम-निशा, निराशा, इन द्वंद्वों का मिटे तमाशा।
स्मित आनंद उषा औ' आशा, एक रहे कर मेल॥
हम सब हैं हो चुके तुम्हारे, तुम भी अपने होकर प्यारे।
आओ, बैठो साथ हमारे, मिलकर खेले खेल॥
[यवनिका-पतन]
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