पृष्ठ:कामायनी.djvu/११४

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मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ ,
वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ ,

दो क्षमा, न दो अपना विराग ,
सोयी चेतनता उठे जाग।"

"है रुद्र-रोष अब तक अशांत ”,
श्रद्धा बोली, "बन विषम ध्वांत !

सिर चढ़ी रही ! पाया न हृदय
तू विकल कर रही है अभिनय ,
अपनापन चेतन का सुखमय ,
खो गया, नहीं आलोक उदय ,

सब अपने पथ पर चलें श्रांत ,
प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।"

जीवन धारा सुन्दर प्रवाह ,
सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह ,

ओ तर्कमयी ! तू गिने लहर ,
प्रतिबिंबित तारा पकड़, ठहर ,
तू रुक-रुक देखे आठ पहर ,
वह जड़ता की स्थिति, भूल न कर ,

सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह ,
तूने छोड़ी यह सरल राह।

चेतनता का भौतिक विभाग--
कर, जग को बाँट दिया विराग ,

चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत ,
वह रूप बदलता है शत-शत ,
कण विरह-मिलन-मय नृत्य-निरत
उल्लासपूर्ण आनंद सतत

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102 / कामायनी