पृष्ठ:कामायनी.djvu/११५

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तल्लीन-—पूर्ण है एक राग,
झंकृत है केवल 'जाग जाग !'

मैं लोक-अग्नि में तप नितांत ,
आहुति प्रसन्न देती प्रशांत ,

तू क्षमा न कर कुछ चाह रही ,
जलती छाती की दाह रही ,
तो ले ले जो निधि पास रही ,
मुझको बस अपनी राह रही,

रह सौम्य ! यहीं, हो सुखद प्रांत ,
विनिमय कर दे कर कर्म कांत।

तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति ,
शासक बन फैलाओ न भीति ,

मैं अपने मनु को खोज चली ,
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
वह भोला इतना नहीं छली !
मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली ,

तब देख कैसी चली रीति ,
मानव ! तेरी हो सुयश गीति ।"

बोला बालक, "ममता न तोड़ ,
जननी ! मुझसे मुँह यों न मोड़ ,

तेरी आज्ञा का कर पालन ,
वह स्नेह सदा करता लालन--
मैं मरूँ जिऊँ पर छुटे न प्रण,
वरदान बने मेरा जीवन !

जो मुझको तू यों चली छोड़ ,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड़ !"

कामायनी / 103