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"हे सौम्य ! इड़ा का शुचि दुलार ,
हर लेगा तेरा व्यथा-भार ,
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय ,
तू मननशील कर कर्म अभय ,
इसका तू सब संताप निश्चय ,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय ,
सब की समरसता का प्रचार ,
मेरे सुत ! सुन माँ की पुकार ।"
"अति मधुर वचन विश्वास मूल ,
मुझको न कभी ये जायें भूल ;
हे देवि ! तुम्हारा स्नेह प्रबल ,
बन दिव्य श्रेय-उद्गम अविरल ,
आकर्षण धन-सा वितरे जल ,
निर्वासित हों संताप सकल !"
कह इड़ा प्रणत ले चरण धूल ,
पकड़ा कुमार-कर मृदुल फूल ।
वे तीनों ही क्षण एक मौन--
विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन !
विच्छेद बाह्य, था आलिंगन--
वह हृदयों का अति मधुर मिलन ,
मिलते आहत होकर जलकन ,
लहरों का यह परिणत जीवन ,
दो लौट चले पुर ओर मौन ,
जब दूर हुए तब रहे दो न !
निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत ,
वह था असीम का चित्र कांत।
104 / कामायनी