पृष्ठ:कामायनी.djvu/११७

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कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर ,
व्यथिता रजनी के श्रमसीकर ,
झलके कब से पर पड़े न झर ,
गंभीर मलिन छाया भू पर ,

सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत ,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत ।

शत-शत तारा मंडित अनंत ,
कुसुमों का स्तबक खिला वसंत ,

हँसता ऊपर का विश्व मधुर ,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर ,
उठती किरणों की लोल लहर ,

निचले स्तर पर छाया दुरंत ,
आती चुपके, जाती तुरन्त ।

सरिता का वह एकांत कूल ,
था पवन हिंडोले रहा झूल ,

धीरे-धीरे लहरों का दल ,
तट से टकरा होता ओझल ,
छप छप का होता शब्द विरल ,
थर थर कैंप रहती दीप्ति तरल ;

संसृति अपने में रही भूल ,
वह गंध-विधुर अम्लान फूल ।

तब सरस्वती-सा फेंक साँस ,
श्रद्धा ने देखा आसपास ,

थे चमक रहे दो खुले नयन ,
ज्यों शिलालग्न अनगढ़े रतन,

कामायनी / 105