पृष्ठ:कामायनी.djvu/११८

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वह क्या तम में करता सनसन ?
धारा का ही क्या हय निस्वन !

ना, गुहा लतावृत एक पास ,
कोई जीवित ले रहा साँस !

वह निर्जन तट था एक चित्र ,
कितना सुन्दर, कितना पवित्र ?

कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर ,
फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर ,
वह लोक-अग्नि में तप गल कर ,
थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर ,

मनु ने देखा कितना विचित्र !
वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र ।

बोले, "रमणी तुम नहीं आह !
जिसके मन में हो भरी चाह ,

तुमने अपना सब कुछ खोकर ,
वंचिते ! जिसे पाया रोकर ,
मैं भगा प्राण जिनसे लेकर ,
उसको भी उन सबको देकर ,

निर्दय मन क्या न उठा करह ?
अद्भुत है तब मन का प्रवाह !

ये श्वापद से हिंसक अधीर ,
कोमल शावक वह बाल वीर ,

सुनता था वह वाणी शीतल ,
कितना दुलार कितना निर्मल !
कैसा कठोर है तब हृत्तल !
वह इड़ा कर गयी फिर भी छल,

106 / कामायनी