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तुम बनी रही हो अभी धीर ,
छुट गया हाथ से आाह तीर ।"
प्रिय ! अब तक हो इतने सशंक ,
देकर कुछ कोई नहीं रंक ,
यह विनिमय है या परिवर्त्तन ,
बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन ,
अपराध तुम्हारा वह बंधन--
लो बना मुक्ति, अब छोड़ स्वजन--
निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक ?
दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक ।”
"तुम देवि ! आह कितनी उदार ,
यह मातृ-मूर्त्ति है निर्विकार ,
हे सर्वमंगले ! तुम महती ,
सबका दुःख अपने पर सहती ,
कल्याणमयी वाणी कहती ,
तुम क्षमा निलय में हो रहती ,
मैं भूला हूँ तुमको निहार--
नारी-सा ही, वह लघु विचार ।
मैं इस निर्जन तट में अधीर ,
सह भूख व्यथा तीखा समीर ,
हाँ भावचक्र में पिस पिस कर,
चलता ही आया हूँ बढ़ कर ,
इनके विकार सा ही बन कर ,
मैं शून्य बना सत्ता खोकर ,
लघुता मत देखो वक्ष चीर ,
जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"
कामायनी / 107