पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२०

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"प्रियतम ! यह नत निस्तब्ध रात ,
है स्मरण कराती विगत बात ,

वह प्रलय शांति वह कोलाहल ,
जब अर्पित कर जीवन संबल ,
मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल ,
क्या भूलूँ मैं , इतनी दुर्बल ?

तब चलो जहाँ पर शांति प्रात ,
मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।

इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक--
मानव ! कर ले सब भूल ठीक ,

यह विष जो फैला महा-विषम ,
निज कर्मोन्नति से करते सम ,
सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम ,
उनका रहस्य हो शुभ-संयम ,

गिर जायेगा जो है अलीक ,
चल कर मिटती है पड़ी लीक । "

वह शून्य असत या अंधकार ,
अवकाश पटल का वार पार ,

बाहर - भीतर उन्मुक्त सघन ,
था अचल महा नीला अंजन ,
भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन ,
थे निनिमेष मनु के लोचन ,

इतना अनंत था शून्य-सार ,
दीखता न जिसके परे पार।

सत्ता का स्पंदन चला डोल ,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,

108 / कामायनी