पृष्ठ:कामायनी.djvu/१२७

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श्रममय कोलाहल, पीड़नमय विकल प्रवर्त्तन महायत्र का
क्षण भर भी विश्राम नहीं है प्राण दास हैं किया-तंत्र का
भाव-राज्य के सकल मानसिक सुख यों दुःख में बदल रहे हैं।
हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये अकड़े अणु टहल रहे हैं ।

ये भौतिक सदेह कुछ करके जीवित रहना यहाँ चाहते ,
भाव-राष्ट्र के नियम यहां पर दंड बने हैं, सब कराहते ।
करते हैं, संतोष नहीं है जैसे कशाघात-प्रेरित से--
प्रति क्षण करते ही जाते हैं भीति-विवश ये सब कंपित से ।

नियति चलाती कर्म-चक्र यह तृष्णा-जनित ममत्व-वासना ,
पाणि-पादमय पंचभूत की यहाँ हो रही है उपासना ।
यहाँ सतत संघर्ष विफलता कोलाहल का यहाँ राज है ।
अंधकार में दौड़ लग रही मतवाला यह सब समाज है ।

स्थूल हो रहे रूप बना कर कर्मों की भीषण परिणति है ।
आकांक्षा की तीव्र पिपासा ! ममता की यह निर्मम गति है ।
यहाँ शासनादेश घोषणा विजयों की हुंकार सुनाती ,
यहाँ भूख से विकल दलित को पदतल में फिर फिर गिरवाती ।

यहाँ लिये दायित्व कर्म का उन्नति करने के मतवाले ,
जल-जला कर फूट पड़ रहे ढुल कर बहने वाले छाले ।
यहां राशिकृत विपुल विभव सब मरीचिका-से दीख पड़ रहे ,
भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे विलीन, ये पुनः गड़ रहे ।

बड़ी लालसा यहाँ सुयश की अपराधों की स्वीकृति बनती ,
अंध प्रेरणा से परिचालित कर्त्ता में करते निज गिनती ।
प्राण तत्व की सघन साधना जल-हिम उपल यहां है बनता ,
प्यासे घायल हो जल जाते मर-मर कर जीते ही बनता।

कामायनी / 115