पृष्ठ:कामायनी.djvu/६३

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मैं यहां अकेली देख रही पथ, सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत ,
कानन में जब तुम दौड़ रहे मृग के पीछे बन कर अशांत !
ढल गया दिवस पीला पीला तुम रक्तारूण बन रहे घूम !
देखो नीड़ों में विहग-युगल अपने शिशुओं को रहे चूम !
उनके घर में कोलाहल है मेरा सूना है गुफा-द्वार !
तुमको क्या ऐसी कमी रही जिसके हित जाते अन्य-द्वार ?"

"श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं पर मैं तो देख रहा अभाव ,
भूली-सी कोई मधुर वस्तु जैसे कर देती विकल घाव।
चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह !
गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा ढह कर जैसे बन रहा डीह ।
जब जड़-बंधन-सा एक मोह कसता प्राणों का मृदु शरीर ,
आकुलता और जकड़ने की तब ग्रंथि तोड़ती हो अधीर ।
हँस कर बोले, बोलते हुए निकले मधु-निर्झर-ललित-गान ,
गानों में हो उल्लास भरा झूमें जिसमें बन मधुर प्रान ।
वह आकुलता अब कहाँ रही जिसमें सब कुछ ही जाय भूल ,
आशा के कोमल तंतु-सदृश तुम तकली में हो रही झूल ।
यह क्यों, क्या मिलते नहीं तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।
तिस पर यह पीलापन कैसा--यह क्यों बनने का श्रम सखेद ?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या इसमें है छिप रहा भेद ?"

"अपनी रक्षा करने में जो चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र ,
वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं--हिंसक से रक्षा करे शस्त्र ।
पर जो निरीह जीकर भी कुछ उपकारी होने में समर्थ ,
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन--इसका मैं समझ सकी न अर्थ।
चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से मेरा चले काम ,
वे जीवित हों मांसल बनकर हम अमृत दुहें--वे दुग्धधाम ।
वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु ,
पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"

कामायनी /51