पृष्ठ:कामायनी.djvu/८५

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मादक भाव सामने,सुन्दर एक चित्र सा कौन यहाँ ,
जिसे देखने को यह जीवन मर-मर कर सौ बार जिये--

इड़ा ढालती थी वह आसव, जिसकी बुझती प्यास नहीं ,
तृषित कंठ को, पी-पी कर भी, जिसमें है विश्वास नहीं ,
वह-—वैश्वानर की ज्वाला-सी-—मंच-वेदिका पर बैठी ,
सौमनस्य बिखराती शीतल, जड़ता का कुछ भास नहीं ।

मनु ने पूछा--"और अभी कुछ करने को है शेष यहाँ ?
बोली इड़ा--"सफल इतने में अभी कर्म सविशेष कहाँ !
क्या सब साधन स्ववश हो चुके ?” "नहीं अभी मैं रिक्त रहा--
देश बसाया पर उजड़ा है सूना मानस - देश यहाँ ।

सुन्दर मुख, आँखों की आशा, किन्तु हुए ये किसके हैं,
एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का, भरे भाव कुछ रिस के हैं,
कुछ अनुरोध मान-मोचन का करता आँखों में संकेत ,
बोल अरी मेरी चेतनते ! तू किसकी, ये किसके हैं?"

"प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति सबका ही गुनती हैं मैं ,
वह संदेह-भरा फिर कैसा नया प्रश्न सुनती हूं मैं !"
"प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी मुझे न अब भ्रम में डालो,
मधुर मराली ! कहो ‘प्रणय के मोती अब चुनती हूँ मैं '

मेरा भाग्य-गगन धुंधला-सा, प्राची-पट-सी तुम उसमें,
खुल कर स्वयं अचानक कितनी प्रभापूर्ण हो छवि-यश में!
मैं अतृप्त आलोक-भिखारी ओ प्रकाश-बालिके ! बता,
कब डूबेगी प्यास हमारी इन मधु-अधरों के रस में ?

ये सुख-साधन और रुपहली-रातों की शीतल-छाया,
स्वर-संचरित दिशाएँ, मन है उन्मद और शिथिल काया,

कामायनी / 73