तब तुम प्रजा बनो मत रानी !" नर-पशु कर हुंकार-उठा,
उधर फैलती मदिर घटा सी अंधकार की घन-माया ।
आलिंगन ! फिर भय का क्रंदन ! वसुधा जैसे काँप उठी !
वह अतिचारी, दुर्बल नारी-परित्राण-पथ नाप उठी !
अंतरिक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार भयानक हलचल थी ,
अरे आत्मजा प्रजा ! पाप की परिभाषा बन शाप उठी ।
उधर गगन में क्षुब्ध हुई सब देव-शक्तियाँ क्रोध-भरी ,
रुद्र-नयन खुल गया अचानक--व्याकुल काँप रही नगरी ;
अतिचारी था स्वयं प्रजापति, देव अभी शिव बने रहें !
नहीं, इसी से चढ़ी शिंजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी ।
प्रकृति त्रस्त थी, भूतनाथ ने नृत्य विकंपित-पद अपना--
उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब होने जाती थी सपना !
आश्रय पाने को सब व्याकुल, स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध ,
फिर कुछ होगा, यही समझ कर वसुधा का थर-थर कँपना ।
काँप रहे थे प्रलयमयी क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु ,
अपनी-अपनी पड़ी सभी को, छिन्न स्नेह का कोमल तंतु ,
आज कहाँ वह शासन था जो रक्षा का था भार लिये ,
इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर बाहर निकल चली थी किंतु ।
देखा उसने, जनता व्याकुल राजद्वार कर रुद्ध रही ,
प्रहरी के दल भी झुक आये उनके भाव विशुद्ध नहीं ,
नियमन एक झुकाव दबा-सा, टूटे या ऊपर उठ जाय !
प्रजा आज कुछ और सोचती अब तक जो अविरुद्ध रही !
74 / कामायनी