पृष्ठ:कामायनी.djvu/८७

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कोलाहल में घिर, छिप बैठे, मनु कुछ सोच विचार भरे ,
द्वार बंद लख प्रजा अस्त-सी, कैसे मन फिर धैर्य-धरे !
शक्ति-तरंगों में आंदोलन, रुद्र-क्रोध भीषणतम था ,
महानील-लोहित-ज्वाला का नृत्य सभी से उधर परे ।

वह विज्ञानमयी अभिलाषा, पंख लगाकर उड़ने की ,
जीवन की असीम आशाएँ कभी न नीचे मुड़ने की ,
अधिकारों की सृष्टि और उनकी वह मोहमयी माया ,
वर्गों की खाँई बन फैली कभी नहीं जो जुड़ने की ।

असफल मनु कुछ क्षुब्ध हो उठे, आकस्मिक बाधा कैसी--
समझ न पाये कि यह हुआ क्या, प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी !
परित्राण प्रार्थना विकल थी देव-क्रोध से बन विद्रोह
इड़ा रही जब वहाँ ! स्पष्ट ही वह घटना कुचक्र जैसी।

"द्वार बंद कर दो इनको तो अब न यहाँ आने देना ,
प्रकृति आज उत्पात कर रही, मुझको बस सोने देना !”
कह कर यों मनु प्रगट क्रोध में, किन्तु डरे-से थे मन में ,
शयन-कक्ष में चले सोचते जीवन का लेना - देना।

अटा काँप उठी सपने में, सहसा उसकी आंख खुली ,
यह क्या देखा मैंने ? कैसे वह इतना हो गया छली ?
स्वजन-स्नेह में भय की कितनी आशकाएं उठ आतीं ,
अब क्या होगा, इसी सोच में व्याकुल रजनी बीत चली।

कामायनी / 75