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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/११७

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[कायाकल्प
 

में इस तरह के खिलवाड़ किये हैं, और उन लोगों को कुछ कुछ जानता हूँ, जो अपने को जाति के सेवक कहते हैं। बस, मुँह न खुलवाओ। सब अपने अपने मतलब के बन्दे हैं, दुनियाँ के लूटने के लिए यह सारा स्वाँग फैला रखा है। हाँ, तुम्हारे जैसे दो-चार उल्लू भले ही फँस जाते हैं, जो अपने को तबाह कर डालते हैं। मैं तो सीधी-सी बात जानता हूँ—जो अपने घरवालों की सेवा न कर सका, वह जाति की सेवा कभी कर ही नहीं सकता, घर सेवा की सीढ़ी का पहला डण्डा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।

चक्रधर जब अब भी प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पर राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले—अच्छा बेटा लो, अब कुछ न कहेंगे। जो तुम्हारी खुशी हो, वह करो मैं जानता था कि तुम जन्म के जिद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था, लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेद कुरेदकर भेजा। कह दूँगा नहीं आता। सब कुछ करके हार गया, सब करके बैठो, उसे अपनी बात और अपनी शान मा-बाप से प्यारी है। जितना रोना हो, रो लो।

कठोर से-कठोर हृदय में भी मातृ स्नेह की कोमल स्मृतियाँ सञ्चित होती हैं। चक्रधर कातर होकर बोले— आप माताजी को समझाते रहिएगा। कह दीजिएगा, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं है, मेरे लिए रंज न करें।

वज्रधर ने इतने दिनों तक योंही तहसीलदारी न की थी। ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा। बेपरवाई से बोले—मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूँ। बिना किसी मतलब के झूठ बोलना मेरी नीति नहीं। जो आँखों से देख रहा हूँ, वही कहूँगा। रोयेंगी, रोयें इसमें मेरा क्या अख्तियार है। रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आये हो, एक घूँट पानी तक मुँह में नहीं डाला। इसी तरह दो चार दिन और रहीं तो प्राण निकल जायँगे। तुम्हारे सिर का बोझ टल जायगा। यह लो, वार्डर मुझे बुलाने आ रहे हैं। वक्त पूरा हो गया।

चक्रधर ने दीन भाव से कहा—अम्माँजी को एक बार यहाँ न लाइयेगा?

वज्रधर—तुम्हें इस दशा में देखकर तो उन्हें जो दो चार दिन जीना है, वह भी न जिएँगी। क्या कहते हो? इकरारनामा लिखना हो, तो मेरे साथ दफ्तर में चलो।

चक्रधर करुणा से विह्वल हो गये। बिना कुछ कहे हुए मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियाँ एक क्षण के लिए मिट गयीं। चक्रधर को गले लगाकर बोले—जीते रहो बेटा, तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या खुशी की बात होगी।

दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा—कहिए, तहसीलदार साहब, आपकी हार हुई न? मैं कहता न था, वह न सुनेंगे। आजकल के नौजवान अपनी बात के आगे किसी की नहीं सुनते।

वज्रधर—जरा कलम दावात तो निकालिए। और बातें फिर होगी।

दारोगा—(चक्रधर से) क्या आप इकरारनामा लिख रहे हैं। निकल गयी सारी