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[कायाकल्प
 


वज्रधर—हुजूर जो चाहें करें। मेरा तो आपसे कहने ही भर का अख्तियार है। हुजूर को दुआ देता हुआ मर जाऊँगा, पर दामन न छोड़ूँगा।

जिम—तुम अपने लड़के को क्यों नहीं समझाता?

वज्रधर-हुजूर नाखलफ है, और क्या कहूँ। खुदा सताये दुश्मन को भी ऐसी औलाद न दे। जी तो यही चाहता है कि हुजूर कम्बख्त का मुँह न देखूँ, लेकिन कलेजा नहीं मानता। हुजूर, मा-बाप का दिल कैसा होता है, इसे तो हुजूर भी जानते हैं।

अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी, एक बार चक्रघर के दर्शनों को आ जाते, यदि चक्रधर को छोड़ने के लिए एक सौ आदमियों की जमानत माँगी जाती, तो उसके मिलने में बाधा न होती। सब जानते थे कि इन्हें हमारे पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ रहा है। शहर से भी हजारों आदमी आ पहुँचते थे। कभी कभी राजा विशालसिंह भी पाकर दर्शकों को गैलरी में बैठ जाते। लेकिन और कोई आये या न आये, सवेरे आये या देर से आये, किन्तु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भाँति बैठी रहती। उसके मुख पर अब पहले की-सी अरुण आभा, वह चञ्चलता, वह प्रफुल्लता नहीं है। उसकी जगह दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिन्ता का फीका रंग छाया हुआ है, मानो कोई विरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु रेखा कभी खिंची ही नहीं। वह न किसी से बोलती है, न मिलती है, उसे देखकर सहसा कोई यह नहीं कह सकता कि यह वही आमोद-प्रिय बालिका है, जिसकी हँसी दूसरों को हँसाती थी।

वहाँ बैठी हुई मनोरमा कल्पनाओं का संसार रचा करती है। उस संसार में प्रेमही प्रेम है, आनन्द-ही-आनन्द है। उसे अनायास कहीं से अतुल धन मिल जाता है, कदाचित् कोई देवी प्रसन्न हो जाती है। इस विपुल धन को वह चक्रधर के चरणों पर अर्पण कर देती है, फिर भी चक्रधर उसके राजा नहीं होते, वह अब भी उसके आश्रयी ही रहते हैं। उन्हें आश्रय ही देने के लिए वह रानी बनती है, अपने लिए वह कोई मंसूबे नहीं बाँधती। जो कुछ सोचती है, चक्रधर के लिए। चक्रधर से प्रेम नहीं है, केवल भक्ति है। चक्रधर को वह मनुष्य नहीं देवता समझती है।

सन्ध्या का समय था। आज पूरे १५ दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम ने दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम से कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।

चक्रधर हँस-हँसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। सबकी आँखो में जल भरा हुआ था। मजदूरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा 'जय जय' का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियाँ खड़ो रो रही थीं। सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सरमुख खड़ी हो गयी। उसके हाथ में एक फूलों का हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली—अदालत ने तो आपको सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा न होगा, जिसके