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[कायाकल्प
 

लोगो अम्माँ कहती हैं कि तू बातें करती है, तो लाठी-सी मारती है।

राजा-मनोरमा, उषा में अगर संगीत होता, तो वह भी इतना कोमल न होता।

मनोरमा-पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई ?

राजा-अभी तो नहीं, मनोरमा ! अवसर पाते ही करूँगा; पर कहीं उन्होंने इनकार कर दिया तो?

मनोरमा--मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनू गी।

दोनों आदमी बरामदे में पहुंचे, तो मुन्शीजी और दीवान साहब खड़े थे । मुन्शी जी ने राजा साहब से कहा- हुजूर को मुबारकबाद देता हूँ।

दीवान--मुन्शीजी...

मुन्शी-हुजूर, आज जलसा होना चाहिए । ( मनोरमा से ) महारानी, अापका सोहाग सदा सलामत रहे ।

दीवान-जरा मुझे सोच .

मुन्शी-जनाव, शुभ काम में सोच-विचार कैसा । भगवान् जोड़ी सलामत रखें। सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर उघर से आ आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा । दीवान साहब सिर झुकाये खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते । दिल में मुन्शीजी को हजारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली । अाखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लोगों से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में यही वदा था, तो मैं करता क्या ? मनोरमा भी तो खुश है।

बारह बजते-बजते मेहमान लोग सिधारे। राजा साहब के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। सारे आदमी सो रहे थे, पर वह बगीचे में हरी हरी घास पर टहल रहे थे । चैत्र की शीतल, सुखद, मन्द समीर, चन्द्रमा की शीतल सुखद, मन्द छटा और बाग की शीतल, सुखद, मन्द, सुगन्ध में उन्हें भी ऐसा उल्लास, ऐसा आनन्द न प्राप्त हुआ था । मन्द समीर में मनोरमा थी, चन्द्र की छटा में मनोरमा थी, शीतल सुगन्ध मे मनोरमा थी, और उनके रोम-रोम में मनोरमा थी। सारा विश्व मनोरमा-मय हो रहा था।


१८

चक्रघर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक नयी दुनिया में आ गये, जहाँ मनुष्य-ही-मनुष्य हैं, ईश्वर नहीं। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। मनुष्य के रचे हुए संसार में मनुष्यत्व की कितनी हत्या हो सकती है, इसका उज्ज्वल प्रमाण सामने था । भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते । वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी भी पैरों से ठुकरा देता,और परिश्रम इतना करना पड़ता था निवना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबरदस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार