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कायाकल्प]
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करते और बात हँसी में उड़ा देते। एक कहता—लो धन्नासिंह, अब हम लोग बैकुण्ठ चलेंगे, कोई डर नहीं है, भगवान् क्षमा कर ही देंगे, वहाँ खूब जलसा रहेगा। दूसरा कहता—धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूँगा कि हड्डियाँ टूट जायँगी। भगवान् से कह दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुण्ठ में रखोगे, तो तुम्हारे नरक में स्यार लोटेंगे। तीसरा कहता—यार, वहाँ गाँजा मिलेगा कि नहीं? अगर गाँजे को तरसना पड़ा, तो बैकुण्ठ ही किस काम का। बैकुण्ठ तो जब जानें कि वहाँ ताड़ी और शराब की नदियाँ बहती हों। चौथा कहता—अजी यहाँ से बोरियों गाँजा और चरस लेते चलेंगे, वहाँ के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे? उन्हें भी कुछ दे दिलाकर काम निकाल लेंगे। जब यहाँ जुटा लिया, तो वहाँ भी जुटा ही लेंगे। पर ऐसी अभक्तिपूर्ण आलोचनाएँ सुनकर भी चक्रधर हताश न होते। शनैः शनैः उनकी भक्ति चेतना स्वयं दृढ़ होती जाती थी। भक्ति की ऐसी शिक्षा उन्हें कदाचित् और कहीं न मिल सकती।

बलवान् आत्माएँ प्रतिकूल दशाओं ही में उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थिति में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती हैं। आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं, कठिनाइयों ही में ईश्वर के दर्शन होते हैं और हमारी उच्चतम शक्तियाँ विकास पाती हैं। जिसने कठिनाइयों का अनुभव नहीं किया, उसका चरित्र बालू की भीत है, जो वर्षा के पहले ही झोंके में गिर पड़ती है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। महान् आत्माएँ कठिनाइयों का स्वागत करती हैं, उनसे घबराती नहीं, क्योंकि यहाँ आत्मोत्कर्ष के जितने मौके मिलते हैं, उतने और किसी दशा में नहीं मिल सकते। चक्रधर इस परिस्थिति को एक शिक्षार्थी की दृष्टि से देखते थे और विचलित न होते थे। उन्हें विश्वास था कि प्रकृति उन्हीं प्राणियों को परीक्षा में डालती है, जिनके द्वारा उसे संसार में कोई महान् उद्देश्य पूरा कराना होता है।

इस भाँति कई महीने गुजर गये। एक दिन सन्ध्या-समय चक्रधर दिन-भर के कठिन श्रम के बाद बैठे सन्ध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले—आज इस दारोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो, गालियाँ दिया करता है, सीधे मुँह तो बात ही नहीं करता। बात बात पर मारने दौड़ता है। हम भी तो आदमी हैं। कहाँ तक सहें! अब आता ही होगा। ऐसा मारो कि जन्म-भर को दाग हो जाय! यही न होगा कि साल दो साल की मीयाद और बढ़ जायगी, बचा की आदत तो छूट जायगी। चक्रधर इस तरह की बातें अक्सर सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया मगर भोजन करने के समय ज्योंही दारोगा साहब आकर खड़े हुए और एक कैदी को देर में आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और 'मारो मारो' का शोर मच गया। दारोगाजी को सिट्टी पिट्टी भूल गयी। कहीं भागने का रास्ता नहीं, कोई मददगार नहीं। चारों तरफ दीन नेत्रों से देखा, जैसे कोई बकरा भेड़ियों के बीच में फँस गया हो। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोगाजी की

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