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[कायाकल्प
 

गरदन पकड़ी और इतनी जोर से दबायी कि उनकी आँखें बाहर निकल आयी। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले—हट जाओ, क्या करते हो?

धन्नासिंह का हाथ ढीला पड़ गया, लेकिन अभी तक उसने गरदन न छोड़ी।

चक्रधर—छोड़ो ईश्वर के लिए।

धन्नासिंह—जाओ भी, बड़े ईश्वर की पूँछ बने हो। जब यह रोज गालियाँ देता है, बात बात पर हंटर जमाता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा। हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूँगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने तो न दौड़ेगा?

दारोगा—कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।

धन्नासिंह—कान पकड़ो।

दारोगा—कान पकड़ता हूँ।

धन्नासिंह—जाओ बचा, भले का मुँह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहाँ कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है।

चक्रधर—दारोगाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन गरीबों को भुनवा डालिए।

दारोगा—लाहौल विला कूवत! इतना कमीना नहीं हूँ।

दारोगा चलने लगे, तो धन्नासिंह ने कहा—मियाँ, गारद सारद बुलायी, तो तुम्हारे हक में बुरा होगा, समझाये देते हैं। हमको क्या, न जीने की खुशी है, न मरने का रञ्ज, लेकिन तुम्हारे नाम को कोई रोनेवाला न रहेगा।

दारोगाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बन्दूक लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम के दम में सिपाहियों का दल संगीने चढ़ाये आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा। पीछे-पीछे दारोगाजी भी दौड़े। कैदी चारों ओर से घिर गये।

चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी।

धन्नासिंह—अब कहो, भगतजी, छुड़वा तो दिया, जाकर समझाते क्यों नहीं? गोली चली तो?

एक कैदी—गोली चली, तो पहले इन्हीं की चटनी की जायगी।

चक्रधर—तुम लोग अब भी शान्त रहोगे, तो गोली न चलेगी। मैं इसका जिम्मा लेता हूँ।

धन्नासिंह—तुम उन सबों से मिले हुए हो। हमें फँसाने के लिए यह ढोंग रचा है।

दूसरा कैदी—दगाबाज है, मार के गिरा दो।

चक्रधर—मुझे मारने से अगर तुम्हारी भलाई होती हो, तो यही सही।

तीसरा कैदी—तुम जैसे सीधे आप हो, वैसे ही सबको समझते हो, लेकिन तुम्हारे