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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१६३

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कायाकल्प]
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गये। दोनों हाथों से वरदान बाँटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मुहल्ले के कई बेफिक्रों को, जिन्हें कोई टके को भी न पूछता था, रियासत में नौकर करा दिया––किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर किसी को कारिन्दा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं, अपना हो यश गाना शुरू करते हैं और उसमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मशहूर हो गया है कि राजा और रानी दोनों इनकी मुट्ठी में हैं। सारा अख्तियार-मदार इन्हीं के हाथ में है। अब मुंशी जी के द्वार पर सायलों की भीड़ लगी रहती है, जैसे क्वार के महीने में वैद्यों के द्वार पर रोगियों की। मुंशीजी किसी को निराश नहीं करते, और न कुछ कर सकें, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। वह लाख बुरे हों; फिर भी उनसे कहीं अच्छे हैं, जो पद पाकर अपने को भूल जाते हैं, जमीन पर पाँव ही नहीं रखते। यों तो कामधेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती; पर मुंशीजी की शरण पाकर दुःखी हृदय को शान्ति अवश्य मिलती है, उसे आशा की झलक दिखायी देने लगती है। मुंशीजी कुछ दिनों तक तहसीलदारी कर चुके हैं, अपनी धाक जमाना जानते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी 'हाँ हाँ' कर देना, आँखें मारना, उड़नघाइयाँ बताना, इन चालों में वह सिद्ध हैं। स्वार्थ की दुनिया है, वकील, ठीकेदार, बनिये-महाजन, गरज हर तरह के आदमी उनसे कोई-न-कोई काम निकालने की आशा रखते हैं, और किसी-न-किसी हीले से कुछ न कुछ दे ही मरते हैं। मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशीजी का भाग्य सूर्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिलाकर अपना मकान पक्का करा लिया, बनिया बोरों अनाज मुफ्त मे भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई नहीं लेता। सारांश यह कि तहसीलदार साहब के 'पौ बारह है। तहसीलदारी में जो मजे न उड़ाये, वह अब उड़ा रहे हैं।

रात के ८ बज गये थे। झिनक अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशीजी मसनद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा।

मुंशी––वाह, झिनकू वाह! क्या कहना है। अब तुम्हें एक दिन दरबार में ले चलूँगा।

झिनकू––जब मर जाऊँगा, तब ले जाइएगा क्या? सौ बार कह चुके, भैया हमारी भी परवरिस कर दो; मगर जब अपनी तकदीर ही खोटी है, तो तुम क्या करोगे। नहीं तो क्या गैर-गैर तो तुम्हारी बदौलत मूंछों पर ताव देते और में कोरा हो रह जाता। यों तुम्हारी दुआ से साँझ तक रोटियाँ तो मिल जाती हैं। लेकिन राज-दरबार का सहारा हो जाय तो जिन्दगी का कुछ मजा मिले।

मुन्शी––क्या बताऊँ जी, बार-बार इरादा करता हूँ, लेकिन ज्योंही वहाँ पहुँचा तो कभी राना साहब और कभी रानी साहब कोई ऐसी बात छेड़ देते हैं कि मुझे कुछ कहने की याद ही नहीं रहती। मौका ही नहीं मिलता।

झिनकू––कहो, चाहे न कहो, मैं तो अब तुम्हारे दरवाजे से टलने का नहीं।