सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०६
[कायाकल्प
 

तुम बिलकुल उल्टी बात कर रही हो। कहाँ है वह छुरी, जरा उसके दर्शन तो कर लें।

अहल्या ने उठकर काँपते हुए हाथों से फर्श का कोना उठाया और नीचे से छुरी निकालकर चक्रधर के सामने रख दी। उस पर रुधिर जमकर काला हो गया था।

चक्रधर ने पूछा—यह छुरी यहाँ कैसे मिल गयी, अहल्या? क्या साथ लेती आयी थी?

अहल्या ने सिर झुकाये हुए जबाब दिया—उसी की है।

चक्रधर—तुम्हें कैसे मिल गयी?

अहल्या ने सिर झुकाये ही बवाव दिया—यह न पूछिए। अबला के पास कौशल के सिवाय आत्मरक्षा का और कौन सा साधन है?

चक्रधर—यही तो सुनना चाहता हूँ, अहल्या!

अहल्या ने सिर उठाकर चक्रघर को ओर मानपूर्ण नेत्रों से देखा और बोलो—सुनकर क्या कीजियेगा?

चक्रधर—कुछ नहीं, योंही पूछ रहा था।

अहल्या—नहीं, आप योंही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है। अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए।

चक्रधर ने देखा, बात बिगड़ रही है। इस एक असामयिक प्रश्न ने इसके हृदय के टूटे हुए तार को चोट पहुँचा दी। वह समझ रही है, मैं इस पर सन्देह कर रहा हूँ। सम्भावना की कल्पना ने इसे सशंक बना दिया है! बोले—तुम्हारी अग्नि-परीक्षा तो हो चुकी अहल्या, और तुम उसमें खरी निकलीं। अब भी अगर किसी के मन में सन्देह हो, तो यही कहना चाहिए कि वह अपनी बुद्धि खो बैठा है। तुम नवकुसुमित पुष्प की भाँति स्वच्छ, निर्मल और पवित्र हो, तुम पहाड़ की चोटी पर जमी हुई हिम की भाँति उज्ज्वल हो। मेरे मन में सन्देह का लेश भी होता, तो मुझे यहाँ खड़ा न देखतीं! वह प्रेम और अखण्ड विश्वास, जो अब तक मेरे मन में था, कल प्रत्यक्ष हो जायगा। अहल्या, मैं कब का तुम्हें अपने हृदय मैं बिठा चुका। वहाँ तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, सन्देह और कलंक का घातक हाथ वहाँ उसी वक्त पहुँचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि-दुर्ग विध्वंस हो जायगा। चलो, चलें। माताजी घबरा रही होगीं।

यह कहकर उन्होंने अहल्या का हाथ पकड़ लिया और चाहा कि हृदय से लगा लूँ, लेकिन वह हाथ छुड़ाकर हट गयी और काँपते हुए स्वर में बोली—नहीं नहीं, मेरे अंग जो मत स्पर्श कीजिए। सूँघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता। मेरी आत्मा निष्कलंक है, लेकिन मैं अब वहाँ न जाऊँगी, कहीं न जाऊँगी। आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मा को समझा दीजिये। मेरे लिए अब दुख न करें। मैं निर्दोष हूँ, लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूँ।

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले—अहल्या जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा